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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः व्योम तथा न विज्ञातो विशेषस्य प्रसाधकः । हेतुः पक्षद्वयेप्यस्ति ततोयं दोषसन्निमः ॥ ३२५ ॥ साध्यसाधनयोप्लेविच्छेदस्यासमर्थनात् । तत्समर्थनतंत्रस्य दोषत्त्वेनोपवर्णनात् ॥ ३२६ ॥ गौतम सूत्र है कि " साधर्म्यवैधाभ्यामुपसंहारे तद्धर्मविपर्ययोपपत्तेः साधर्म्यवैधर्म्यसमौ " इस सूत्रमें साधर्म्यसमा और वैधर्म्यसमा दोनोंका लक्षण किया गया है । तिनमें साधर्म्यसमाका लक्षण यों है कि वादी द्वारा साधर्म्य करके हेतुका पक्षमें उपसंहार करचुकनेपर उस साध्यधर्मके विपर्यय धर्मकी उपपत्ति करनेसे जो वहां दूषणमास उठाया जाता है, वह साधर्म्यसम प्रतिषेध माना गया है। उसका उदाहरण यों समझिये कि यह बात्मा ( पक्ष ) हलन, चलन, आदि क्रियाओंको धारनेवाला है ( साध्य ), क्रियाओंके कारण हो रहे गुणोंका आश्रय होनेसे ( हेतु ) जो इस प्रकार होता हुआ क्रियाके हेतुभूत गुणोंका आधार है, वह इस प्रकारका क्रियावान् अवश्य है। जैसे कि फेंका जा रहा डेल (अन्वय दृष्टान्त) और तिस प्रकारका क्रिया हेतु गुणाश्रय वह आत्मा है (उपनय) तिस कारणसे गमन भ्रमण, उत्पतन, आदि क्रियाओंको यह आत्मा धारण कर रहा है (निगमन)। डेलमें क्रियाका कारण संयोग, वेग या कहीं गुरुत्व ये गुण विद्यमान हैं और आत्मामें अदृष्ट (धर्म अधर्म ) प्रयत्न, संयोग, ये गुण क्रियाके कारण वर्त रहे हैं । अतः आत्मामें उनका फल क्रिया होनी चाहिये । इस प्रकार उपसंहार कर वादीद्वारा समीचीन हेतुके कहे जानेपर कोई प्रतिवादी इसके विपर्ययमें यों कह रहा है कि जीव ( पक्ष ) क्रियारहित है ( साध्य ), व्यापकद्रव्यपना होनेसे (हेतु ) जैसे कि आकाश ( अन्वयदृष्टान्त ) " सर्वमूर्तद्रव्यसंयोगित्वं विभुत्वम् " सम्पूर्ण पृथ्वी, जल, तेज, वायु और मन इन मूर्त द्रव्योंके साथ संयोग धरनेवाले पदार्थ व्यापक माने जाते हैं। जब कि बाकाश विभु है, अतः निष्क्रिय है, उसी प्रकार व्यापक आत्मा भी क्रियारहित है। जब कोई स्थान ही रीता नहीं बचा है तो व्यापक पात्मा भला क्रिया कहां करें ! क्रियाको साधने वाले पहिले पक्ष और क्रियारहितपनको साधनेवाले दूसरे पक्ष इन दोनों मी पक्षोंमें कोई विशेषता का अच्छा साधन करनेवाला हेतु तो नहीं जाना गया है। नैयायिक कहते हैं कि तिस कारणसे यह पिछला पक्ष वस्तुतः दोष नहीं होकर दोषके सदृश हो रहा दूषणामास है । क्योंकि यह पिछला कथन पहिले कहे गये साध्य और हेतुको व्याप्तिके विच्छेद करनेकी सामर्थ्यको नहीं रखता है। उस साध्य और साधनकी व्याप्तिके विच्छेदका समर्थन करना जिसके अधीन है, उसको लोक और शाखमें दोषपने करके कहा गया है। अतः यह प्रतिवादीका कथन साधर्म्यसमा जाति. स्वरूप दोषामास है।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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