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________________ ५३२ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके अनुपलम्भसे आवरण आदिकोका अभाव सिद्ध नहीं हो पाता है। और उसकी असिद्धि होनेपर आवरणामावके विपरीत हो रहे आवरण आदिके सद्भावकी सिद्धि प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो सके "अथवा सिद्धान्ती कहते हैं कि उस अभावकी सिद्धि नहीं होनेपर उसके विपरीत आवरण बादिके सद्भावकी सिद्धि कैसे भी योग्य स्थान को नहीं पा सकती है। ___ यतश्च प्रागुच्चारणाच्छदस्यावरणादीनि सोहं नैवोपलभे, तदनुपलब्धिमुपलभे सर्वत्रेत्याबालमनाकुलं संवेदनमस्ति । तस्मादावरणादीनामदृष्टेन सिध्यत्यभाव इत्ययमुपालंभो न प्रमाणान्वितः " सर्वत्रोपलंभानुपलंभव्यवस्थित्यभावप्रसंगात् । ततोनुपलब्धेरपि समयाऽ नुपध्या प्रत्यवस्थानमनुपलब्धिसमो दक्षणाभास एवेति प्रतिपत्तव्यं ।। दूसरी बात यह भी है, जिस कारणसे कि उच्चारणसे पहिले शब्दके आवरण आदिकोंको वह मैं नहीं प्रत्यक्ष देख रहा हूं और उन आवरण आदिकोंकी अनुपलब्धिका प्रत्यक्ष उपलम्भ में कर रहा हूं, इस प्रकार सभी स्थानोंपर बालक, अन्धे, या पक्षियों,तकको आकुळतारहित संवेदन हो रहा है । तिस कारणसे प्रतिवादी द्वारा दिया गया आवरण आदिकोंकी अदृष्टिके भी अदर्शन होनेसे शब्दके आवरणों का अभाव सिद्ध नहीं हो पाता है । इस प्रकार यह उलाहना प्रमाणज्ञानसे युक्त नहीं है। यों पोंगापनसे उलाहना देनेपर तो सभी स्थलोंपर प्रत्यक्ष हो रही उपलम्म और उपलम्मकी व्यवस्थाके अभावका प्रसंग हो जायगा । तिस कारणसे तो आवरणकी अनुपलब्धिकी अनुपलब्धिको तिसरी अनुपलब्धिसे उलाहना देकर आवरणोंका अभाव भी साधा जा सकता है। तथा तुझ प्रतिबादीका साधन भी दोषोंकी अनुपलब्धिका अनुपलम्भ होनेसे सदोष ही बन बैठेगा । किन्तु ऐसे भ्रम उत्पादक उपायोंका अवलम्ब हम नहीं लेना चाहते हैं। भाईसाहब ! भाव अभावोंका,उपलम्म करनेवाले ज्ञान विशेषोंका मनसे अन्तरंग आत्मामें संवेदन हो रहा है। उच्चारणके पहिले शदके बावरण मुझको नहीं दीख रहे हैं । यह अनुपलब्धि भी स्वसम्वेध है। अतः अनुपकन्धिसमा करके प्रत्यवस्थान देना प्रतिवादीका अनुपलब्धिसम नामक दूषणामास ही है। यह दृढताके साथ समझकर सबको मान लेना चाहिये। . का पुनरनित्यसमा जातिरित्याह । फिर इसके पीछे कही गयी बाईसवी अनित्यसमा जातिका लक्षण उदाहरणसहित क्या है ! ऐसी जिज्ञासा होने पर न्यायसूत्र और न्यायभाष्य के अनुसार श्रीविद्यानन्द आचार्य समाधानको कहते हैं। कृतकत्वादिना साम्यं घटेन यदि साधयेत् । शद्वस्यानित्यतां सर्व वस्त्वनित्यं तदा न किम् ॥ ४२६ ॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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