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तत्वार्थचिन्तामणिः
या प्रत्यवस्थितिः सात्र मता जातिविदांवरैः। अर्थापचिसमैवोक्ता साधनाप्रतिवेदिनी ॥ ३९५ ॥ यदि प्रयत्नजत्वेन शदस्यानित्यताभवत् । तदार्थापचितो नित्यसाधादस्तु नित्यता ॥ ३९६ ॥ यथैवास्पर्शवत्वं खे नित्ये दृष्टं तथा ध्वनौ । इत्यत्र विद्यमानत्वात्समाधानस्य तत्त्वतः ॥ ३९७ ॥ शदोनित्योस्ति तत्रैव पक्षे हेतोरसंशयम् । एष नास्तीति पक्षस्य हानिरर्थात्प्रतीयते ॥ ३९८ ॥
शब्द ( पक्ष) भनित्य है (साध्य ), प्रयत्नके अनन्तर उत्पत्ति होनेसे ( हेतु ) षटके समान (स्टान्त ) इस प्रकार प्रयत्नानन्तरजन्यत्व समीचीन हेतुसे शदके बनित्यत्व पक्षका अच्छा साधन कर चुकनेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा प्रतिपक्ष नित्यस्वकी प्रसिद्धि करनेके लिये अर्थापत्ति करके जो प्रत्यबस्थान किया जाता है, वह यहां जातिवेत्ता विद्वानोंमें श्रेष्ठ हो रहे पुरुषों करके अर्यापत्ति ममा जाति ही मानी गयी है। जो कि वादीके साधनको नहीं समझ कर उसके प्रतिकूल पक्षमें कह दी गयी है । उस अर्यापत्तिसम प्रतिषेधका उदाहारण यों है कि यदि प्रयत्नजन्यत्व हेतु करके शद्ध की बनिस्पता सिद्ध हो सकी है, तब तो बिना कहे अर्थापत्ति द्वारा नित्य नाकाशके साधर्म्यसे शब्दको नित्यपना हो जामो, निस ही प्रकार स्पर्शगुणरहितपना नित्य हो रहे बाकाशमें देखा गया है, उसी प्रकार निर्गुण शब्दमें भी स्पर्शरहितपना विधमान है । अतः शदका नित्य पदार्थके साथ साधर्म्य, बस्पर्शत्व तो है । जब कि अापत्ति ज्ञान उक्त करके अनुक्कका भाक्षेप कर लेता है, तो शब्द मनित्य है, इस प्रकार कहनेपर बिना कहे ही अभिप्रायसे निकल जाता है कि अन्य घट आदिक बनित्य है। ऐसी दशामें अन्धयदृष्टान्त कोई नहीं मिल सकता है। तथा अनुमान प्रमाणसे यदि शद्वका बनित्यपमा साधा जाता है, तो अर्यापपिसे निकल पाता है कि प्रत्यक्ष प्रमाणसे शब्द नित्य लिख हो जायगा और यों तो वादीका हेतु बाधितहेस्वाभास हो जायगा या सत्प्रतिपक्ष हो जायगा। इस प्रकार यह अर्थापत्तिसमा जाति उठायी जाती है। अब सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार पहां प्रतिवादी द्वारा असमीचीन कुचोच उठाये जानेपर इसके वास्तविक रूपसे होनेवाले समाधान (उत्तर) हमारे पास विद्यमान हैं। पूर्वमें प्रतिवादी द्वारा कहे गये वे प्रमाणसे पर्यापत्ति आमास है। उनसे शब्दका अनित्यत्व निरस्त नहीं होता है। वहां ही प्रसिद्ध उदाहरणमें गजिये कि शब्द बनित्य है। इस प्रकार पक्षके समीचीन हेतुसे संशयरहित होकर साध चुकनेपर अर्थापत्ति की