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तत्वार्थोकवार्तिके
प्रतिषेध करोगे ? बताओ । यदि प्रतिषेध के पूर्व कालमें प्रतिषेधक रहेगा तो वह उस समय किसका प्रतिषेध करता हुआ अपने प्रतिषेधकपनकी रक्षा कर सकेगा ! और दूसरा पक्ष लेनेपर प्रतिषेण्यके पीछे कालमें यदि प्रतिषेभ्य ठहरेगा तो प्रतिषेधकके विना वह किसके द्वारा प्रतिषेध्य होकर अपने प्रतिषेध्यपनको रक्षित कर सकेगा ! तृतीय पक्ष बेनेपर एक काकमें वर्त रहे दोनोंमेंसे किसको प्रतिषेष्य और किस दूसरेको प्रतिषेधक माना जाय ! कोई निर्णायक नहीं है। इस प्रकार हेतु फलभावका खण्डन कर देनेपर तुम्हारा प्रतिषेध करना भी नहीं बन सकता है। अतः प्रतिषेध करने योग्य दूसरे वादीके हेतुका प्रतिषेध तुम्हारे बूते नहीं हो सका इस कारण अपनी आंखके बडे टेंट को देखते हुये भी दूसरेकी निर्दोष चक्षुओंमें दोष निहारना प्रतिवादीका प्रशस्त कार्य नहीं है। देखो, कारक हेतु तो कार्य के अव्यवहित पूर्वकाल में रहना चाहिये और ज्ञापकके लिये कोई समय नियत नहीं है । अविनाभाव मात्र आवाश्यक है ।
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समान कार्यासौ प्रतिषेधः स्याद्वादविद्भिः । कथं पुनस्त्रैकाल्य सिद्धेर्हेतोरहेतुसमा जातिरभिधीयते ? अहेतु सामान्यमत्ववस्थानात् । यथा ग्रहेतुः साध्यस्यासाधकस्तथा हेतुरपि त्रिकालत्वेनाप्रसिद्ध इति स्पष्टत्वादहेतुसमाजातेर्लक्षणोदाहरणप्रतिविधानानामर्क व्याख्यानेन ।
श्री विद्यानन्द आचार्य शिष्यों के लिये शिक्षा देते हैं कि स्याद्वाद के वेत्ता बुद्धिमानों करके वह अहेतुसमा नामका प्रतिषेध तो कभी नहीं करना चाहिये। यहां किसीका प्रश्न है कि " त्रैकाल्यासिद्धेतोर हेतुस्रमः " इस सूत्र अनुसार हेतुकी तीनों कालमें वृत्तिताके असिद्ध हो जानेसे महेतुसमा जाति बखानी गयी, फिर कैसे कह दी जाती है ? इसका उत्तर सिद्धान्ती द्वारा यों दिया जाता है। कि प्रतिवादीने हेतुपन सामान्य से प्रत्यवस्थान दिया । जिस प्रकार कि विवक्षित पदार्थका हेतु नहीं बन रहा कोई अहेतु पदार्थ उस विवक्षित साध्यका साधक नहीं है, तिसी प्रकार त्रैकापने करके नहीं प्रसिद्ध हो रहा मनोनीत हेतु भी साध्यका साधक नहीं हो सकेगा। इस प्रकार अहेतुसमा जाति के लक्षण, उदाहरण और उम्र असदुत्तर हो रही जातिका खण्डन करनेवाले प्रतिविधानोंकी स्पष्टता दृष्टिगोचर हो रही है। अतः उनका पुनरपि व्याख्यान कर देनेसे कुछ विशेष प्रयोजन नहीं सका है । अत्र विवरण रूपसे विशद हो रहे पदार्थोंका व्याख्यान करनेसे पूरा पढो, पुनरुक दोषको इम अवकाश देना नहीं चाहते हैं ।
प्रयत्नानन्तरोत्थत्वाद्धेतोः पक्षे प्रसाधिते । प्रतिपक्षप्रसिद्ध पर्यमर्थापत्त्या विधीयते ॥ ३९४ ॥