________________
५१६
तत्वार्थश्लोक वार्तिके
सामर्थ्य से ही यह शद्व अनित्य नहीं है । इस प्रतिवादीके पक्ष की हानि प्रतीत हो जाती है। तुम्हारे ढूंडे हुये गठिके उपाय से ही तुम्हारा निराकरण हो जाता है । यदि नित्य पदार्थ के साधर्म्य स्पर्श रतिपन से आकाश के समान शद्व नित्य है, तो कहे बिना ही अर्थसे प्राप्त हो जाता है कि अनित्य पदार्थ के साधर्म्य प्रयत्न जन्यत्व हेतुसे घटके समान शद अनित्य है । यया च प्रत्यवस्थानमर्थापत्त्या विधीयते । नानैकांतिकता दृष्टा समत्वादुभयोरपि ॥ ३९९ ॥ ग्रावणो घनस्य पातः स्यादित्युक्तेर्थान्न सिद्धयति । द्रवात्मनामपां पाताभावोर्थापत्तितो यथा ॥ ४०० ।। तस्याः साध्याविना भावशून्यत्वं तद्वदेव हि । शद्वानित्यत्वसंसिद्धौ नार्थान्नित्यत्वसाधनं ॥ ४०१ ॥
दूसरी बात यह है कि जिस अर्थापत्ति करके प्रतिवादी द्वारा प्रत्यवस्थान किया जा रहा है, वह अर्थापत्ति तो व्यभिचार दोष ग्रस्त है । उससे तुम्हारे अभीष्ट साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है। किसी विशेष पदार्थकी विधि कर देनेसे ही शेष पदार्थोंका निषेध नहीं हो जाता है । घट नीला है । यो कह देने से शेष सभी कम्बल कमल आदिक पदार्थ अनीक नहीं हो जाते हैं। देखिये जिस प्रकार कठिन हो रहे पाषाणाका नियमसे पतन हो जाता है यों कह देनेपर अर्थापत्ति से यह सिद्ध नहीं हो जाता है कि वह रहे पतळे द्रव स्वरूप जोंका पात नहीं होता है । उसीके समान ही उस अर्थापत्तिके उत्थापक अर्थका साध्य के साथ अविनाभाव बने रहने से शून्यपना है । और यह अर्थापत्ति तो दोनों भी पक्षों में समान रूपसे लागू हो जायगी, जब कि उक्त करके जिस किसी भी ऐरे गैरे अनुक्तका तुम अर्थापत्ति से आपादन कर छेते हो तो तुम्हारे पक्षकी हानि भी आपन्न हो जावेगी । बात यह है कि जब शद्वके अनित्यस्वकी म प्रकार सिद्धि हो चुकी है, तो व्यभिचार दोषवाळी अर्थापत्तिके द्वारा अभिप्राय मात्र शद्वका मिष्यपन नहीं साधा जा सकता है । अनित्यत्वको साधनेवाले हेतुमें स्वकीय साध्यके साथ अविनाभाव विद्यमान है । किन्तु नित्यश्वका साधक अस्पर्शवत्र हेतु तो अविनाभावसे विकल है ।
नापयानैकांतिक्या प्रतिपक्ष सिध्यति येन प्रयत्नानंतरीयकत्वात् श्रस्यानित्यत्वे साघितेपि अस्पर्शवत्वान्यथानुपपत्या तस्य नित्यवं सिद्धयेत् । सुखादिनानैकांतिकी चेयमर्थापत्तिरतो न प्रतिपक्षस्य सिद्धिस्तदसिद्धौ च नार्थापचिरतएव उपपद्यते सचायुक्तार्थापत्तितः प्रतिपक्षसिद्धेरर्थापत्तिसम इति वचनात् ।