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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
प्रत्यक्ष प्रमाणसे और अनेक युक्तियों द्वारा अनेकान्त प्रसिद्ध हो रहा है । देवदत्त चलती दुई गाडीमें बैठा जा रहा है। यहां बैठना और जाना दोनों विरुद्ध सारिखे हो रहे धर्म एक समय देवदत्त में दीख रहे हैं । तभी तो चलती हुई गाडीसे गिर जानेपर दौडते हुये पुरुषके पतनके समान अस्यधिक चोट लग जाती है । मीठे चिकने दूधमें भी खार है, तभी तो उससे खांड स्वच्छकर दी जाती है। रेमे भी क्षार भाग होनेमे आंखका कीचड उससे निकाल दिया जाता है । सुन्दर गहने, कपडे या खाद्य पदार्थ समी सम्पत्तियां काल अनुसार कूडा रूप हो जाती हैं। कूडा भी खातरूपसे लाखों मन अन्न, फल, घास तरकारी आदिको उपजाकर महती सम्पत्ति बन जाता है। सभी स्थान दूर देशवतीकी अपेक्षा दूर है और निकट देशवत्तीकी अपेक्षा समीप हैं । " अणो. रणीयान् महतो महीयान् उघोबीयान् गुरुतो गरीयान् " इस वैदिक वाक्यसे भी अनेकान्तकी पुष्टि होती है । नदीकी उरली पार भी पर ली पार और परळीपार भी उरली पार है । " बोस चाटने प्यास महीं बुझती है । "" डूबतेको तिनकेका सहारा अच्छा है।" इन दोनों लौकिक परिभाषाजोंका यथायोग्य उपयोग हो रहा है । इसी प्रकार "विन मागे मोती मिलें मांगे मिले न भीख"
और " रोये ( मागे ) विना माता मी बच्चों को दूध नहीं पिलाती है।" इन दो गैकिक न्यायोंका मी समुचित सदुपयोग हो रहा है । सुरेंद्र बंगाली द्वारा सभी बंगालियोंके झूठ बोलनेवाला ठहराने का विज्ञापन करनेपर उसका अर्थ बंगाली सब सच बोलनेवाले सिद्ध हो जाते हैं। क्योंकि सब बंगाछियोंको असत्यवक्ता कहमेवाला सुरंद्र मी तो बंगाली है । मेरुकी प्रदक्षिणा देनेवाळे सूर्यके उदय अनुसार पूर्व दिशाको नियत करनेवालों के यहाँ सूर्यका उदय पश्चिम दिशामें हो जाता है । अग्नि, जल, कदाचित् यथाक्रमसे शीत उष्ण उत्पादक संभव जाते हैं । इन लौकिक युक्तियोंसे और असंख्य शास्त्रीय युक्तियों से प्रत्येक पदार्थमें अनेक धर्मोका सद्भाव प्रसिद्ध हो रहा है। अतः अनेकान्तमें दोष उठाना सूर्यपर थूकने के समान स्वयं दोष उठानेवाले पुरुषका दूषण बनकर मिथ्या उत्तर है। अतः प्रकरणमें यही कहना है कि श्री अकलंक देवके मन्तव्य अनुसार नैयायिकोंको जातिका बक्षण " मिया उत्तर ही " स्वीकार कर लेना चाहिये । इसमें कोई बव्याप्ति, अतिव्याप्ति दोष नहीं पाते हैं।
न चैवं परलक्षणस्याव्याप्तिदोषाभाव इत्याह ।
जिस प्रकार श्री अकलंक देव द्वारा बनाये गये लक्षणमें कोई बव्याप्ति दोष नहीं आता है, इसी प्रकार दूसरे नैयायिकों द्वारा माने गये साधर्म वैध द्वारा प्रत्यवस्थान देना इस लक्षणमें अव्याप्ति दोषका अभाव है, यह नहीं कह सकते हो । अर्थात्-नैयायिकों द्वारा किये गये जातिके लक्षणमें अव्याप्ति दोष आता है । इसी बातको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक द्वारा कहते हैं।