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________________ तत्वार्थको वार्तिके करके सम्बन्धको प्राप्त हो जाता है। अर्थात् - विधिका ज्ञान, विधिमें ज्ञान, ये सब अमेद होने से विधि स्वरूप ब्रह्म ही है, इस कारण विधिको प्रधानरूपसे वाक्य अर्थके विचारका विघात नहीं हो पाता है। क्योंकि तिस प्रकार विधिको कहनेवाले वेदवाक्योंसे आत्माका ही विधान कर्तापनेकरके बुद्धि में प्रतिभात हो रहा है । तथा उस आत्मा के दर्शन, श्रवण, अनुमनन, और ध्यानस्वरूपका विधिके कर्म हो रहेपनेकर के अनुभव हो रहा है । और तिस प्रकार होनेपर स्वयं आत्मा ही अपनेको देखने के लिये, सुनने के लिये, अनुमनन करनेके लिये और ध्यान करने के लिये प्रवर्तता है । अर्थात् आत्मा ही वेदवाक्य है । कर्ता, कर्म, क्रिया, भी स्वयं आत्मा ही है । अन्यथा यानी दूसरे प्रकारोंसे मानकर यदि तिस प्रकार अभेदले प्रवृत्ति होना असम्भव होता तो मैं स्वयं आत्मा से प्रेरित हुआ हूं इस प्रकार प्रतीति होना अप्रामाणिक हो जाता । तिस कारण सिद्ध होता है कि हम अद्वैतवादियों की मानी हुई विधि असत्य नहीं है । जिससे कि उस विधिको प्रधानरूपसे वाक्य अर्थपना विरुद्ध पड जाता। आप जैन या मीमांसकोंने विधिका सत्य यानी यथार्थपना होनेपर द्वैत सिद्धि हो जानेका प्रसंग दिया था, सो ठीक नहीं है । क्योंकि आत्मस्वरूप के अतिरिक्तपने से उस विधिका अभाव है। विधायकपनकरके, विधीयमानपनकरके, भावविधि करके, सब तिस प्रकार उस एक ही परमब्रह्मका प्रतिभास हो रहा है। विधि के असत्यपनेका पक्ष तो हम लेते ही नहीं है । स्यान्मतं से छेकर यहांतक विधिको पुष्ट करनेवाले अद्वैतवादियोंका पूर्वपक्ष हुआ । अब आचार्य महाराज समाधान करते हैं । १८२ तदप्यसत्यं । नियोगादिवाक्यार्थस्य निश्चयात्मतया प्रतीयमानत्वात् । तथाहिनियोगस्तावदग्निहोत्रादिवाक्यादिवत् द्रष्टव्योरेऽयमात्मा इत्यादि वचनादपि प्रतीयते एव नियुक्तोहमनेन वाक्येनेति निरवशेषो योगो नियोगः प्रतिभाति मनागप्ययोग शंकानवतारादवश्यकर्तव्यता संप्रत्ययात् । कथमन्यथा तद्वाक्यश्रवणादस्य प्रवृत्तिरुपपद्यते, मेघध्वन्यादेरपि प्रवृत्तिप्रसंगात् । अद्वैतवादियों का वह कहना मी असत्य है क्योंकि वाक्यके अर्थ नियोग, भावना आदिकी मी निश्चय स्वरूपपनेकरके प्रतीति की जा रही है। उसीको हम प्रसिद्ध कर दिखाते हैं कि अग्नि होत्र, ज्योतिष्टोम आदिके प्रतिपादक वाक्यों आदिसे जैसे नियोग तो प्रतीत हो रहा है, वैसा ही "दृष्टव्योरेयमात्मा श्रोतव्यः " इत्यादि वचनसे भी नियोग प्रतीत हो रहा ही है। मैं " दृष्टव्योरे इस वाक्य करके नियुक्त हो गया हूं। इस प्रकार शेषरहित परिपूर्णरूपसे योग हो जाना रूप नियोग प्रतिभासता है। स्वप भी यहां योग नहीं होने की आशंकाका अवतार नहीं है । अतः अवश्य करने योग्य है, इस प्रकारका अच्छा ज्ञान हो रहा है। अन्यथा यानी अद्वैतप्रतिपादक वाक्योंद्वारा पूर्ण योग होना नहीं माना जावेगा तो उस दृष्टव्य आदि वाक्यके सुनने से इस श्रोता मनुष्यकी श्रवण, मनन आदि
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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