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तत्वावचिन्तामणिः
करनेमें प्रवृत्ति होना कैसे सध सकेगा ! इतिकर्तव्यतारूप नियोगके ज्ञान विना ही यदि चाहे जिस शब्दसे प्रवृत्ति होना मान लिया जावेगा तो मेघगर्जन, समुद्रपूत्कार, आदि शब्दोंसे भी श्रोताओंकी प्रवृत्ति हो जानेका प्रसंग हो जावेगा, जो कि इष्ट नहीं है।
___ स्यादेतत् । मिथ्येयं प्रतीतिनियोगस्य विचार्यमाणस्य प्रवृत्तिहेतुत्वायोगात् । स हि प्रवर्तकस्वभावो वा स्यादतत्स्वभावो वा ? प्रथमकल्पनायां प्रभाकराणामिव ताथागता. दीनामपि प्रवर्तकः स्यात् । सर्वथा प्रवर्तकत्वात् । तेषां विपर्यासादप्रवर्तक इत्यपि न निश्चेतुं शक्यं परेषामपि विपर्यासात्मवर्तकत्वानुषंगात् । मामाकरा हि विपर्यस्तमनसः शब्दनियोगात् प्रवर्तते नेतरे अविपर्यस्तत्वादिति वदतो निवारयितुमशक्तेः ।
यदि बद्वैतवादियोंका लम्बा चौडा यह मन्तव्य होय कि वाक्यका अर्थ तो नियोग नहीं हो सकता है । अतः अद्वैत प्रतिपादक वाक्योंसे नियोगकी यह उक्त प्रकार प्रतीति करना मिथ्या है । नियोगका विचार किया जानेपर उसको प्रवृत्तिका हेतुपना नहीं घटित होता है । देखिये, हम अद्वैतवादी प्रभाकरोंके प्रति प्रश्न उठाते हैं कि वह तुम्हारा माना गया नियोग क्या प्रवृत्ति करा देना, इस स्वभावको धारता है ! अथवा उस प्रवृत्ति करा देना स्वभावोंको नहीं रखता है ! बताओ। यदि प्रथमपक्षकी कल्पना करोगे तब तो प्रभाकरोंके समान बौद्धोंको भी वह नियोग अग्निष्टोम शादि कर्मोंमें प्रवर्तक हो जायें । क्योंकि उस नियोगका स्वभाव सभी प्रकारसे प्रवृत्ति करा देना है। अग्निका स्वभाव यदि जला देना है तो वह काष्ट, वन, मूर्ख शरीर, पंडित शरीर, रत्न, कूडा, सबको एक स्वभावसे दग्ध कर देती है । यदि नियोगबादी यों कहें कि उन बौद्धोंको मिथ्याज्ञान हो रहा है। अतः नियोग उनको प्रवृत्त नहीं कराता है । जैसे कि सुवर्ण या अभ्रक अथवा भस्म को अग्नि नहीं जलाती है । इसपर हम यह कहते हैं कि इस बातका भी निश्चय नहीं किया जा सकता है । सम्भव है कि दूसरे प्रभाकरोंके भी विपर्ययज्ञान हो जानेसे नियोगको प्रवर्तकपनेका प्रसंग होगा। क्योंकि आरोप किया जा सकता है कि प्रभाकरोंका मन विपर्यय ज्ञानसे आक्रान्त हो रहा है । इस कारण वे शब्दके अर्थ नियोगसे कर्मकाण्डोंमें प्रवृत्ति कर रहे हैं। किन्तु दूसरे बौद्ध तो विपर्यय ज्ञानसे घिरे हुये मनको नहीं धारण करनेसे कर्मकाण्डमें प्रवृत्ति नहीं कर रहे है। इस प्रकार कह रहे हम अद्वैतवादियोंको रोका नहीं जा सकता है।
सौगतादिमतस्य प्रमाणबाधितत्वात् त एव विपर्यस्ता न प्राभाकरा इत्यपि पक्षपातमात्रं तन्मतस्यापि प्रमाणवाधनविशेषात् । यथैव हि प्रतिक्षणविनश्वरसकलार्थवचनं प्रत्यक्षादिविरुद्धं तथा नियोगतद्विषयादिभेदकल्पनमपि सर्व प्रमाणानां विधिविषयतयावधारणात सदेकत्वस्यैव परमार्थतोपपत्तेः।