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________________ aratर्थचिन्तामणिः २५१ 1 संज्ञा, संज्ञी, वाक्कार्य, कर्म, आदिक आठ हेतुओंसे मोक्ष मानना विरुद्ध पडता है । जो ही बंधा था उसीकी ही मोक्ष नहीं हो सकी । अतः बौद्धोंके यहां सभी प्रकारोंसे इष्ट पदार्थोंकी प्रसिद्धि नहीं हो पाती है । हां, वास्तविक द्रव्य और पर्यायोंके मान लेने पर उक्त सभी व्यवस्था ठीक बन जाती है । क्षणध्वंसिन एव बहिरंतश्च भावाः क्षणद्वयस्थाष्णुत्वेपि तेषां सर्वदा नाशानुपपतेः कौटस्थप्रसंगात् क्रमाक्रमाभ्यामर्थक्रियाविरोधादवस्तुतापत्तेः । इति यो द्रव्यं निराकरोति सर्वथा सोत्रर्जुसूत्राभासो हि मन्तव्यः प्रतीत्यतिक्रमात् । प्रत्यभिज्ञानप्रतीतिर्हि बहिरंतश्चैकं द्रव्यं पूर्वोत्तरपरिणा प्रवर्ति साधयंती बाधविधुरा प्रसाधितैव पुरस्तात् । तस्मिन् सति प्रतिक्षणविनाशस्येष्टत्वान्न विनाशानुपपत्तिर्न भावानां कौटस्थापत्तिः यतः सर्वथार्थं क्रिया विरोधात् अवस्तुता स्यात् । बौद्ध मन्तव्य है कि सम्पूर्ण बहिरंग अन्तरंग पदार्थ एक क्षण ही ठहरकर द्वितीय क्षण में को प्राप्त हो जानेवाले हैं । यदि पदार्थोंको एक क्षणसे अधिक दो क्षण भी स्थितिशील मान किया जायगा तो सदा उन पदार्थोंका नाश हो जाना नहीं बन सकेगा, यानी कभी उनका नाश नहीं हो सकेगा। जो दो क्षण ठहर जायगा वह तीसरे आदि क्षणोंमें भी टिकेगा । ऐसी दशा हो जानेसे पदार्थों कूटस्थ नित्यपनेका प्रसंग आवेगा । कूटस्थ पक्ष अनुसार क्रम और अक्रमसे अर्थक्रिया होनेका विरोध है | अतः अवस्तुपनका प्रसंग आजायगा । अर्थात् -" द्वितीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्वं क्षणिकथं " जिसकी दूसरे क्षणमें मृत्यु हो जाती है, वह क्षणिक है। सभी सदूत पदार्थ एक क्षणतक ही जीवित हो रहे हैं । दूसरें क्षणमें उनका समूलचूल नाश हो जाता है। यदि दूसरे क्षण में पदार्थका जीवन मान लिया जाय तो तीसरे, चौथे, पांचवें, क्षण आदि भी दूसरे, तीसरे, चौथे आदि क्षणोंकी अपेक्षा दूसरे क्षण हैं । अतः अनन्तकालतक पदार्थ स्थित रहा आवेगा । कभी उसका नाश नहीं हो सकेगा । जैसे कि "आज नगद कल उधार" देनेवालेको कभी उधार देनेका अवसर नहीं प्राप्त होता है । कूटस्थ पदार्थमें अर्थक्रिया नहीं होनेसे वस्तुत्वकी व्यवस्था नहीं है । अतः पहिके पीछे कुछ भी अन्वय नहीं रखते हुये सभी पदार्थ क्षणिक हैं । इस प्रकार कह रहा जो सौत्रान्तिक बौद्ध त्रिhorrant द्रव्यका खण्डन कर रहा है । आचार्य कहते हैं कि उसका वह ज्ञान सभी प्रकारोंसे ऋजुसूत्र नयाभास नियमसे मानना चाहिये । क्योंकि बौद्धोंके मन्तव्य अनुसार पदार्थोंको क्षणिक माननेपर प्रामाणिक प्रतीतियोंका अतिक्रमण हो जाता है । कारण कि प्रत्यभिज्ञान प्रमाण1 स्वरूप प्रतीति ही बाधक प्रमाणोंसे रहित होती हुई अपने पहिले पीछे कालके पर्यायोंमें वर्त रहे बहिरंग अन्तरंग एक द्रव्यको सधा रही हमने पहिले प्रकरणों में अच्छे प्रकार सिद्ध करा ही दी है । भावार्थ-स्थास, कोश, कुशूल आदि पर्यायों में मिट्टी के समान अनेक बहिर्भूत पर्यायोंमें एक पुद्गल द्रव्यना व्यवस्थित है । तथा आगे पीछे कालों में होनेवाले अनेक ज्ञान सुख इच्छा आदि पर्यायोंमें एक
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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