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________________ तत्वार्थ श्लोकवार्तिके अन्तरंग आत्मा द्रव्य पुवरहा है । इस नित्यद्रव्यको जाननेवाला बाधारहित प्रत्यभिज्ञान प्रमाण कहा जा चुका है । हो, द्रव्यार्थिक नय अनुसार उस अन्त्रित नित्य द्रव्यको मान चुकनेपर तो पर्यायार्थिक नयसे भावोंका प्रतिक्षण विनाश होना हमें अभीष्ट है । अतः विनाशकी असिद्धि नहीं हुई, विनाशके मान लेने पर पदार्थोंके सर्वथा कूटस्थपनका प्रसंग नहीं आ पाता है, जिससे कि कूटस्थ पदार्थमें सभी प्रकारोंसे अर्थक्रिया हो जानेका विरोध हो जानेसे अवस्तुपना आ जाता । अतः द्रव्यको नहीं निवारते हुये क्षणिक पर्यायोंको विषय करनेवाला ऋजुसूत्र नय है और सर्वथा निरन्वय क्षणिक परिणामोंको जाननेवाला ऋजुसूत्र नयाभास है । २५२ योपि च मन्यते परमार्थतः कार्यकारणभावस्याभावान्न ग्राह्मग्राहकभावो वाच्यवाचकभावो वा यतो बहिरर्थः सिध्येत् । विज्ञानमात्रं तु सर्वमिदं त्रैधातुकमिति, सोपि चर्जुसूत्राभासः स्वपरपक्षसाधनदूषणाभावप्रसंगात् । विचारा जाय तो न कोई सौत्रान्तिकके यहां विषयको बनने से प्राह्मग्राहक भाव जो भी योगाचार बौद्ध यों मान रहा है कि वास्तविक रूपसे किसीका कारण है और कोई किसीका कार्य भी नहीं है । हमारे भाई कारण और ज्ञानको कार्य माना गया है। किन्तु कार्यकारणभावके नहीं भी हम शुद्धसम्बेदन | द्वैतवादियों के यहां नहीं बनता है और वाध्यवाचकभाव भी हमारे यहां नहीं माना गया है। जिससे कि बहिरंग अर्थोकी सिद्धि हो सके । यह सम्पूर्ण जगत् तो केवळ विज्ञान स्वरूप है । कार्यकारणभाव या प्राह्मग्राहकभाव अथवा वाच्यवाचकभाव इन तीनों धातुओंका समुदाय विज्ञानमय है । शुद्ध विज्ञानके अतिरिक्त कोई पदार्थ नहीं है। इस प्रकार मान रहे योगाचारका वह विचार भी ऋजुसूत्र नयामास है । क्योंकि कार्यकारणभाव आदिको वास्तविक माने बिना स्वपक्ष के साधन और परपक्ष के दूषण देनेके अभावका प्रसंग हो जावेगा । ज्ञेयज्ञायक माननेपर और वायवाचक माननेपर स्वपक्षसिद्धि और परपक्षदूषण को वचन द्वारा समझा जा सकता है, अन्यथा नहीं । लोकसंवृत्या स्वपक्षस्य साधनात् परपक्षस्य बाधनात् दूषणाददोष इति चेन्न, लोकसंवृतिसत्यस्य परमार्थसत्यस्य च प्रमाणतोसिद्धेः तदाश्रयणेनापि बुद्धानामधर्मदेशना दुषणद्वारेण धर्मदेशनानुपपत्तेः । जाता कल्पित लोकव्यवहारसे स्वपक्षका साधन और परपक्षका बाधन हो जानेसे दूषण दे दिया है । अतः कोई दोष नहीं है। अब आचार्य कहते हैं कि इन विज्ञानाद्वैतवादियोंको यह तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि लौकिक व्यवहारसे सत्य हो रहे और परमार्थरूपसे सत्य हो रहे पदार्थ की तुम्हारे यहां प्रमाणोंसे सिद्धि नहीं हो सकी है। अतः उस लोकव्यवहारका आश्रय करने से भी बुद्ध भगवानोंका अधर्म उपदेशके दूषणद्वारा धर्म उपदेश देना नहीं बन सकता है । अर्थात् धर्मका
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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