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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः परकीय भावोंकी नहीं अपेक्षा कर सत्पने या द्रव्यपनेका अन्वय जाना जा रहा है । संग्रह नयके अनुसार यह नैगम नय दो धर्मियोंको प्रधान गौणरूपसे विषय कर रहा है। हां, सत्पने और द्रव्यपनेके सर्वथा मेदको कह रहा तो यह नय दुर्नय हो जायगा । अर्थात् - वैशेषिक पण्डित ara और द्रव्यत्वको परस्पर में भिन्न मानते हैं । और जातिमान्का जातियोंसे भेद स्वीकार करते हैं, यह उनका शुद्धद्रव्यनैगमाभास है । यस्तु पर्यायवद्रव्यं गुणवद्वेति निर्णयः । व्यवहारनयाज्जातः सोऽशुद्धद्रव्यनैगमः ॥ ३९ ॥ "" 1 जो नय " पर्यायवान् द्रव्य है अथवा गुणवान् द्रव्य है, इस प्रकार निर्णय करता है, वह न तो व्यवहारनयसे उत्पन्न हुआ अशुद्धद्रव्यनैगम है व्यवहारनय केवळ एक ही धर्म या धर्मीको जानता है । किन्तु यह अशुद्ध द्रव्यनैगम नय तो धर्म, धर्मी, दोनोंको विषय करता है । इस दो प्रकारके द्रव्यनैगमको संग्रह और व्यवहारसे उत्पन्न हुआ इसी कारण कह दिया गया है किं पहिले एक एक विषयको जाननेके लिये संग्रह, व्यवहार, नय प्रवर्त जाते हैं। पीछे धर्म, धर्मी, या दोनों धर्म, अथवा दोनों धर्मियोंको प्रधान, गौणरूपसे जाननेके लिये यह नव प्रवर्तता है । तद्भेदेकातवादस्तु तदाभासोनुमन्यते । तथोक्तेर्बहिरंतश्च प्रत्यक्षादिविरोधतः ॥ ४० ॥ २३७ पर्याय और पर्यायवान्का एकान्तरूपसे भेद मानते रहना अथवा उन गुण और गुणका सर्वथा भेद स्वीकार करनेका पक्ष पकडे रहना तो उस अशुद्ध द्रव्य नैगमका आभास माना जा रहा है। क्योंकि बहिरंग कहे जा रहे बट, रूप, पट, पटत्व, आदि तथा आत्मा ज्ञान, आदि अन्तरंग पदार्थों में तिस प्रकार मेद कहते रहनेसे प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंकरके विरोध आता है । शुद्धद्रव्यार्थ पर्याय नैगमोस्ति परो यथा । सत्सुखं क्षणिकं शुद्धं संसारेस्मिन्नितीरणम् ॥ ४१ ॥ अब नैगमके द्रव्यपर्याय नैगम मेदके चार प्रमेदोंका वर्णन करते हैं । तिनमें पहिला शुद्ध द्रव्यार्थ पर्याय नैगम तो न्यारी भांतिका इस प्रकार है कि इस संसार में सुख पदार्थ शुद्ध सत् स्वरूप होता हुआ क्षणमात्रमें नष्ट हो जाता है, यों कहनेवाला यह नय है । यहां उत्पाद, व्यय, धौव्य, रूप सपना तो शुद्धद्रव्य है । और सुख अर्थपर्याय है । विशेषण हो रहे शुद्ध द्रव्यको गौणरूपसे और विशेष्य हो रहे अर्थपर्याय सुखको प्रधानरूपसे यह नय विषय करता है ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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