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________________ १८२ तत्त्वार्थकोकवातिक सिद्धि हो जानेपर दूसरे असम्बद्धभाषीका अर्थान्तर निग्रहस्थान होगा । अन्य प्रकारोंसे निग्रहस्थान हो जानेकी व्यवस्था नहीं है । पहिले प्रकरणों में इसका विशेषरूपसे निश्चय कर दिया गया है। निरर्थकं विचारयितुमारभते । अब सातवें " निरर्यक" नामक निग्रहस्थानका विचार करनेके रिये श्री विद्यानन्द आचार्य महाराज प्रारम्भ करते हैं। वर्णक्रमस्य निर्देशो यथा तद्वनिरर्थकं । यथा जबझभेत्यादेः प्रत्याहारस्य कुत्रचित् ॥ १९६ ॥ क, ख, ग, घ आदि वर्णमालाके अक्षरोंके क्रमका निर्देश करना जिस प्रकार निरर्थक है, उसी प्रकार निरर्थक अक्षरों का प्रयोग करनेसे प्रतिपादकका निरर्थक निग्रहस्थान हो जाता है। जैसे कि किसी एक स्थलपर शब्दकी नित्यता सिद्ध करने के अवसरमें व्याकरणके " ज ब ग ड द श, छ भ घ ढ ध ष्, यो अल्, हल्, जश् आदि प्रत्याहारोंका निरूपण करनेवाला पुरुष निगृहीत हो जाता है। यदुक्तं वर्णक्रमनिर्देशवनिरर्थकं । तद्यथा-नित्यः शद्धो जबगडदशस्त्वाभघढधवदिति। ___जो ही न्यायदर्शनमें गौतमऋषि द्वारा कहा गया है। वर्गों के क्रमका नाममात्र कथन करनेके समान निरर्थक निग्रहस्थान होता है । उसको उदाहरण द्वारा यों दिखलाया गया है कि शब्द ( पक्ष ) नित्य है ( साध्य ) ज ब ग ड द श्पना होनेसे ( हेतु ) श म ध ढ धष्के समान ( दृष्टान्त ) । इस प्रकार वाच्यवाचक भावके नहीं बननेपर अर्थका ज्ञान नहीं होनेसे वर्ण ही क्रमसे किसी पोंगा पण्डितने कह दिये हैं । अतः वह निगृहीत हो जाता है । तत्सर्वथार्थशून्यत्वात् किं साध्यानुपयोगतः। द्वयोरादिविकल्पोत्रासंभवादेव तादृशः॥ १९७ ॥ वर्णक्रमादिशद्वस्याप्यर्थवत्त्वात्कथंचन । तद्विचारे वचिदनुकार्येणार्थेन योगतः ॥ १९८ ॥ इसार आचार्य महाराज विचार करते हैं कि वह निरर्थक निग्रहस्थान क्या सभी प्रकारों करके अर्थसे शून्यपना होनेसे वक्ताका निग्रह करनेके लिये समर्थ हो जायगा ! अथवा क्या प्रकृत साध्यके साधनेमें उपयोगी नहीं होनेसे निरर्थक वचन वक्ताका निग्रह करा देवेंगे ! बताओ । उन दो
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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