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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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आत्माके अवधिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशम करके उत्पन्न हुयी विशुद्धिका अनुगम करनेसे एक देशसे हुयी देशावधि भी अनुगामी हो जाती है। और परमावधि भी सूर्यप्रकाश समान मात्माका अनुगम करनेवाली अनुगामी मानी मयी है । तथा इसी प्रकार सर्वावधि भी अनुगामी हो रही है। अर्थात्-तीनों प्रकारकी अवधियोंका मेद अनुगामी है। यों हेतुपूर्वक सिद्धि कर दी गयी है।
विशुद्धयनन्वयादेषोऽननुगामी च कस्यचित् । तद्भवापेक्षया प्राच्यः शेषोऽन्यभववीक्षया ॥ १२ ॥
क्षयोपशमजन्य आत्मप्रसादस्वरूप विशुद्धिका अन्वयरूप करके गमन नहीं करनेसे यह अवधि किसी किसी जीवके अननुगामी होती है । तिन तीन प्रकारके अवधि ज्ञानोंमें पहिलादेशावधिजान तो उसी भवकी अपेक्षासे अननुगामी कहा जाता है । अर्थात्-किसी किसी जीवके हुआ देशावधिज्ञान उस स्थानसे अन्य स्थानपर साथ नहीं पहुंचता है । या उस जन्मसे दूसरे जन्ममें नहीं पहुंच पाता है। तथा चरमशरीरी संयमाके पाये जानेवाले शेष बचे हुये परमावधि और सर्वावधि तो अन्य भवकी अपेक्षा करके अननुगामी हैं । अर्थात्-सर्वावधि परमावधि ज्ञानियोंकी उसी भव मोक्ष हो जाने के कारण अन्य भवोंका धारण नहीं होनेसे वे दो अवधिज्ञान अननुगामी हैं। यों तो वे उसी जन्ममें संयमीके उत्पन्न होकर बारहवें गुणस्थानतक पाये जा सकते हैं ।
वर्द्धमानोऽवधिः कश्चिद्विशुद्धवृद्धितः स तु । देशावधिरिहाम्नातः परमावधिरेव च ॥ १३ ॥
विशुद्धि और सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकी वृद्धि हो जानेसे कोई कोई वह अवधि तो वर्द्धमान कही जाती है । तिनमें देशावधि और परमावधि ही यहां वर्द्धमान मानी गयों हैं । क्योंकि देशावधिके जघन्य अंशसे लेकर उत्कृष्ट अंशोंतक वृद्धियां होती हैं। तथैव तैजस्कायिक जीवोंकी अवगाहनाओंके भेदोंके साथ तैजसकायिक जीवराशिका परस्पर गुणा करनेसे जितना लब्ध आता है, उतने असंख्यात लोकप्रमाण परमावधि के द्रव्य अपेक्षा भेद हैं और क्षेत्रकालकी अपेक्षासे भी असंख्यात भेद हैं । अतः परमावधि भी बढरही सन्ती वर्द्धमान है, किन्तु सर्वावधिका भेद · पर्द्धमान नहीं है। वह अवस्थित है।
हीयमानोऽवधिः शुद्धेीयमानत्वतो मतः । स देशावधिरेवात्र हानेः सद्भावसिद्धितः ॥ १४ ॥