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________________ तस्वार्थश्लोकवार्तिके प्रसिद्धि बनी रहेगी, जब कि किसी शास्त्रमें ऐसा संकेत नहीं है कि क्रमसे ही वाक्योंको बोलना चाहिये तथा क्रमसे बोलनेमें बहुत शोंका प्रयोग करना पडता है। इस कारणसे भी अवयवोंका विपर्यास रूपसे कथन करना निग्रहस्थान नहीं है। इस कथनका तुम नैयायिक परिहार नहीं कर सकते हो । विशेष यह कहना है कि हां “ पर्वतो भुक्तं वन्हिमान् देवदत्तेन " या रोटीको पहिनो अंगरखाको खाओ इत्यादि स्थलोंमें शद्वोंकी ठीक ठीक आनुपूर्वी पर्वतो वन्हिमान, देवदत्तेन मुक्तं, अंगरखाको पहिनो, रोटीको खाओ, " करनेसे ही अर्थका प्रतिपादन होता है। वहां यदि सभी प्रकारोंसे अर्थकी आनुपूर्वीके प्रतिपादनका अभाव है, ऐसी दशामें अवयवोंके विपर्यास कथनको क्लुप्त हो रहे निरर्थकपनसे ही वादीका निग्रहस्थान कहना न्यायसे अनपेत है। उस निरर्थकसे इस अप्राप्तकालको न्यारा निग्रहस्थान मानना न्याय अनुमोदित नहीं है। आपको नीतिपूर्ण बातें कहनी चाहिये, कच्ची समझकी बातें नहीं। यञ्चोक्तं हीनमन्यतमेनाप्यवयवेन न्यूनं । यस्मिन् वाक्ये प्रतिज्ञादीनामन्यतमावयनो न भवति तद्वाक्यं हीनं वेदितव्यं । तच्च निग्रहस्थानसाधनाभावे साध्यसिद्धेरभावात् पतिज्ञादीनां पंचानामपि साधनत्वात् । और जो नैयायिकोंने हीननिग्रहस्थानका लक्षण यों कहा था कि अनुमानके नियत किये गये अवयवों से एक भी अवयवसे जो न्यून कहा जायगा, वह “हान " नामक निग्रहस्थान होगा। इसका अर्थ यों है कि जिस अनुमान वाक्यमें प्रतिज्ञा आदिकोंमेंसे कोई भी एक अवयव नहीं कहा गया होता है, वह वाक्य हीन समझना चाहिये और ऐसे वाक्यका उच्चारण करनेवाला पण्डित हीन निग्रहस्थानको प्राप्त होता हुआ पराजित हो जायगा । वह हीन तो निग्रहस्थान यों माना गया है कि साधनों के अभाव होनेपर साध्यकी सिद्धि का अभाव हो जाता है। जब कि प्रतिज्ञा मादिक पांचों भी अवयवोंको अनुमानका साधकपना है, तो एक अवयवके भी कमती बोलनेपर न्यूनता आजाती है। प्रतिज्ञान्यूनं नास्तीत्येके । तत्र पर्यनुयोज्याः प्रतिज्ञान्यूनं वाक्यं यो ब्रूते स किं निगृह्यते ? अथवा नेति, यदि निगृह्यते कथमनिग्रहस्थानं ? न हि तत्र हेत्वादयो न संति न च हेत्वादिदोषाः संतीति निग्रहं चाभ्युपैति । तस्मात्प्रतिज्ञान्यूनमेवेति । अथ न निग्रहः न्यूनं वाक्यमर्थ साधयतीति साधनाभावे सिद्धिरभ्युपगता भवति । यच्च ब्रवीषि सिद्धांतपरिग्रह एव प्रतिज्ञेति, तदपि न बुध्द्यामहे । कर्मण उपादानं हि प्रतिज्ञासामान्य विशेषतो. वधारितस्य वस्तुनः परिग्रहः सिद्धांत इति कथमनयोरैक्यं, यतः प्रतिज्ञासाधनविषयतया साधनांग न स्यादित्युद्योतकरस्याकूतं, तदेतदपि न समीचीनमिति दर्शयति । अभी नैयायिक ही कहे जा रहे हैं कि हेतु, उदाहरण, आदिसे न्यून हो रहे वाक्यको भले ही हीन कह दिया जाय, किन्तु प्रतिज्ञासे न्यून हो रहे वाक्यको हीन नहीं कहना चाहिये ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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