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________________ तत्वार्थाकवार्तिके उचित कार्य नहीं है । अतः उस आवरणकी अनुपलब्धि के अनुपलम्पसे अभावको साधनेपर उस Tarah for प्रस्तावित अर्थका विषात करनेके लिये उपपत्ति उठाना निर्दोष विद्वानोंद्वारा अनुपमा जाति कही जा चुकी है । ५२८ दाह, न पाचारणाद्विद्यमानस्य शस्यानुपलब्धिस्तदाचरणाद्यनुपलब्धेरुत्पत्तेः घटादेरिव । यस्य तु दर्शनात् प्राविद्यमानस्यानुकब्धिस्तस्य नावरणाद्यनुपलब्धिः यथा भूम्यावृतस्योदकादेर्नावरणाद्यनुपलब्धिश्च श्रवणात् प्राक् शहस्य । तस्मान्न विद्यमानस्यानुपलब्धिरित्यविद्यमानः शब्दः श्रवणात्पूर्वमनुपलब्धिरिति निषेध्य शब्दस्यानुपलब्धिर्या तस्याश्वानुपलब्धेरभावस्य साधने कृते सति विपर्यासादभावस्योपपत्तिरनुपलब्धिसमा जातिः प्रकीर्तितानधैः, प्रस्तुतार्थविघाताय तस्याः प्रयोगात् । तदुक्तं । तदनुपलब्धेरनुभादभावसिद्धौ विपरीतोपपत्तेरनुपलब्धिसम " इति । 66 कोई बादी कह रहा है कि विद्यामान शद्वका उच्चारणसे पहिले अनुपलम्भ नहीं है। क्योंकि उस शद्वके आवरण ( भूमि, भीत आदिके समान ) असन्निकर्ष ( इन्द्रिय और अर्थका सन्निकर्ष नहीं होना) इन्द्रियघात ( कान फूट जाना ) सूक्ष्मता ( परमाणुओंके समान इन्द्रिय गोचर नहीं होगा ) ममोन स्थान ( चित्तका अस्थिर रहना ) अतिदूरस्थ ( अधिक दूर देशमें सुमेरु आदिके समान शका पडा रहना ) अभिभव ( सूर्यके आलोकले दिनमें चन्द्रप्रभा या तारागणों के छिपजाने समान शद्वका छिपा रहना ) समानामिहार ( भैसके दूधमें गायके दूधका मिक जाना या छोटेके पानी में गिलास पानीका मिल जाना इस प्रकार शद्वका समान गुणवाके पदार्थ के साथ मिश्रण होकर पृथक्, पृथक्, दिखाई नहीं पड़ना) आदिकी अनुपलब्धि हो रही है । अतः उत्पत्तिके पहिले घट आदिका अभाव है । देखो, दर्शनके पहिले विद्यमान हो रहे जिस पदार्थकी अनुपलन्धि है, उसके तो आवरण, असन्निकर्ष, व्यवधान आदिकी अनुपलब्धि नहीं है । जैसे कि भूमिसे ढके हुये स्रोतजक या थैकीसे के हुये रुपये, या सन्दूकसे आवृत हो रहे वण आदि आवरण अथवा दूरवर्ती नगर, मेला, तीर्थस्थान आदिके साथ हो रहे इन्द्रियोंके असनिर्ष athi अनुपत्र नहीं है । इसी प्रकार सुननेके पहिले शब्द के आवरण आदिक नहीं दीख रहे हैं । तिस कारण से सिद्ध होता है कि विद्यमान हो रहे शब्दोंकी अनुपलब्धि नहीं है। प्रत्युत ( बहिक) सुनने के पूर्व का शब्द विद्यमान ही नहीं है । इस कारण उसकी उपलब्धि नहीं हो रही है । इस कारण निषेध करने योग्य शब्दकी जो अनुपतन्धि है, उसकी भी अनुपलब्धि हो जाने से अभावका साधन करनेपर विपर्यासले उस अनुपलब्धि के अभावकी उपपत्ति करना मिष्पाप aarties प्रतिवादीकी अनुपलब्धिसमा जाति बखानी गयी है । बादीके प्रस्ताव प्राप्त अर्थका विज्ञात करनेके लिये प्रतिवादीने उस जातिका प्रयोग किया है । वही गौतमऋषिने न्यायदर्शन में
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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