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तत्वार्थचोकवात के
निग्रहस्थान सम्भव रहा माना गया है । कुछ नहीं समझ रहा प्रतिवादी भला किसका प्रतिषेध करे । न्यायभाष्यकारने खेद प्रकट करते हुये प्रतिवादीके ऊपर करुणा भी दिखा दी । हारे हुये के भी कोई भगवान् सहायक हो जाते हैं, ऐसा ग्राम्यप्रवाद है । अब भाचार्य कहते हैं, वह अज्ञान भी अननुभाषण या अपार्थकके समान ही प्रतीत हो रहा है । कोई विलक्षणता नहीं है, तात्विक दृष्टिसे विचारनेपर ज्ञात हो जाता है कि सम्पूर्ण ही प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, पुनरुक्त, अपार्थक, अधिक, आदि निग्रहस्थानों में वादी या प्रतिवादीका अज्ञानसे भिन्न और दूसरा निग्रहस्थान नहीं है। क्तः अज्ञान मी वैसा ही है । कोई चमत्कार युक्त नहीं है। वहां भी अज्ञान ही सम्भव रहा है। यदि उन प्रतिबाहानि आदि निग्रहस्थानोंको इस अज्ञानके भेद प्रभेदस्वरूप मानकर पृथक् निरूपण किया जावेगा तब तो निग्रहस्थानों की प्रतिनियत संख्याके अभाव होनेका प्रसंग होगा । तुम नैयायिकोंके यहां यों भेदप्रभेदस्वरूप पचासों, सैकडों, बहुतसे, निग्रहस्थान क्यों नहीं हो जायेंगे । क्योंकि वादीद्वारा कहे गये का आधा ज्ञान नहीं होना, चतुर्थ अंशका ज्ञान नहीं होना, या आधा विपरीत, बाधा समीचीन ( सुपरीत ) ज्ञान होना, आदि भेद प्रभेदोंका बहुत प्रकारसे यहां अवधारण किया जा सकता है।
उत्तराप्रतिपत्तिरमतिभेत्यपि निग्रहस्थानमस्य नाज्ञानादन्यदित्याह ।
अब आचार्य महाराज नैयायिकोंके सोलहमें निग्रहस्थानका विचार करने हैं। नैयायिकोंने गौतम सूत्रमें " अप्रतिमा " नामक निग्रहस्थानका लक्षण यों किया है कि दूसरे विद्वानके द्वारा कहे गये तत्त्वको समझकर भी उत्तर देनेके अवप्तरपर उत्तरको नहीं देता है, तो प्रतिवादीका अप्रतिमा निग्रहस्थान हो जाता है। आचार्य कहते हैं कि नैयायिकके द्वारा इस प्रकार माना गया यह अप्रतिमा निग्रहस्थान भी अज्ञान नामक निग्रहस्थानसे न्यारा नहीं है । इस बातको स्वयं प्रन्थकार स्पष्ट कहते हैं।
उत्तराप्रतिपचिर्या परैरप्रतिभा मता। साप्येतेन प्रतिव्यूढा भेदेनाज्ञानतः स्फुटम् ॥ २४४ ॥
जो दूसरे नैयायिक विद्वानों करके श्रोताको उत्तरकी प्रतिपत्ति नहीं होना अप्रतिभा मानी गयी है, वह भी इस उक्त अज्ञान निग्रह स्थानके विचार करनेसे ही खण्डित कर दी गयी है, क्योंकि अज्ञान निग्रहस्थानसे अप्रतिभाका व्यक्त रूपसे कोई भेद प्रतीत नहीं होता है । अज्ञान और उत्तरकी अप्रतिपत्तिमें कोई विशेष अन्तर नहीं है।
यदप्युक्तं, निग्रहप्राप्तस्यानिग्रहः पर्यनुयोज्यांपेक्षणं निग्रहस्थानमिति, तदपि न साधीय इत्याह ।