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तत्वार्थचिन्तामणिः
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अन्य भी हो सकती थीं । किंतु ये दो सप्तमंगियां मूलनयकी इक्कीस सप्तभंगियों में गिनाई जा चुकी हैं। नयोंके उत्तर भेदोंकी सप्तमंगियोंमें उक्त दो सप्तमंगियोंके गिनानेका प्रकरण नहीं है अतः एक प्रकार के ऋजुसून की शेष उत्तरनय भेदोंके साथ ६ छह ही सप्तभंगियां हुयीं । तथा शब्दनयके भेदोंकी सप्तमंगियां इस प्रकार हैं कि छह प्रकारके शब्दनयकी अपेक्षा अस्तित्व मानकर एक ही प्रकार के सममिरूढनयकी अपेक्षा नास्तित्वकी कल्पना करते हुये दो मूलभंगोंद्वारा छह सप्तमंगियां बना लेना और छह शब्दनयके भेदोंकी अपेक्षा अस्तित्व मान कर एक प्रकारके एवंभूतकी अपेक्षा नास्तित्वको मानते हुए छह सप्तभंगियां बना लेना । इस प्रकार शब्दन के मेदोंकी बचे हुये दो नयोंके साथ ६+६= १२ बारह सप्तमंगियां हुयीं । समभिरूढ और एवंभूतका कोई उत्तरमेद नहीं है । अतः समभिरूढकी एवंभूत के साथ अस्तित्व या नास्तित्व विवक्षा करनेपर उत्पन्न हुई एक सप्तभंगी मूळ इक्कीस सप्तगंगियोंमें गिनी जा चुकी है। उत्तर सप्तभंगीमें उसको गिनने की आवश्यकता नहीं है, गिन भी नहीं सकते हैं । इस प्रकार उत्तर नयोंकी ११७+२२+१८+६+१२ = १७५ एक सौ पिचत्तर सप्तमंगियां हुयीं ।
तथोत्तरोत्तरनयसप्तभंग्योपि शद्वतः संख्याताः प्रतिपत्तव्याः ।
तिस प्रकार भेद प्रभेद करते हुये उत्तर उत्तर नयोंकी सप्तभंगियां भी लाखों, करोडों, होती हुयीं शोंकी अपेक्षा संख्यात सप्तभंगियां हो जाती हैं। क्योंकि जगत् में संकेत अनुसार वाच्य अर्थोको प्रतिपादन करनेवाले शह केवळ संख्याते हैं । असंख्यात या अनन्त नहीं हैं। चौसठ अक्षरोंके द्वारा संयुक्त अक्षर बनाये जाय तो एक कम एकट्टि प्रमाण १८४४६७४४००३७०९५५१६१५ इतने एक एक होकर अपुनरुक्त अक्षर बन जाते हैं। तथा संकेत अनुसार इन अक्षरोंको आगे पीछे घर कर या स्वरोंका योग कर एकस्वर पद, एक स्वरवाले पद, दो स्वरवाले पद, तीन स्वरवाळे पद, चार स्वरवाले पद, पांच स्वरवाले पद, एवं अ ( निषेध या वासुदेव ) इ ( कामदेव ) स ( क्रोध उक्ति ) मा ( लक्ष्मी ) कु ( पृथ्वी ) ख ( आकाश ) घट (घडा) अग्नि ( आग ) करी (हाथी) मनुष्य, भुजंग, मर्कट, अजगर, पारिजात, परीक्षक, अभिनन्दन, साम्परायिक, सुरदीर्घिका, अङ्ग खल्लरी, अम्यवकर्षण, श्रीवत्सलाञ्छन, इत्यादि पद बनाये जावें तो पद्मों, संखों,
नांग, नलिन, आदि संख्षाओंका अतिक्रमण कर संख्याती सप्तभंगियां बन जातीं समझ लेनी चाहिये, जो कि जघन्य परीता संख्यातसे एक कम हो रहे उत्कृष्ट संख्यात नामकी संख्या के भीतर हैं।
इति प्रतिपर्यायं सप्तभंगी बहुधा वस्तुन्येकत्राविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना प्राग्बदुक्ताचार्यैः नाव्यापिनी नातिव्यापिनी वा नाप्यसंभविनी तथा प्रतीतिसंभवात् । तद्यथासंकल्पनामात्रग्राहिणो नैगमस्य तावदाश्रयणाद्विधिकल्पना, प्रस्थादिसंकल्पमात्रं प्रस्थाधानेतुं