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________________ तत्वार्यश्लोकवार्तिके किया । हो, छळ या निग्रहस्थान दोष अवश्य है । किन्तु पराजय करानेके लिये पर्याप्त नहीं । थोडीसी पेटको पीडा गुहेरी, फुसी, काणापन ये दोष साक्षात मृत्युके कारण नहीं है। तीन शस्त्राघात, सनिपात, शूळ, हृद्गतिका रुकना आदिसे ही मृत्यु होना संभव है । अतः जय और पराजयकी व्यवस्था देनेके लिये बडे विचारसे काम लेना चाहिये । इसमें जीवन,मरणके प्रश्न समान अनेक पुरुषोंका कल्याण और अकल्याण सम्बन्धित हो रहा है। अतः स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष निराकरणसे ही जयव्यवस्था माननी चाहिये । अन्यको जयका प्रधान उपाय नहीं मानो। छोटे दोषोंको महान् दोषोंमें नहीं गिनना चाहिये । अथ जाति विचारयितुमारभते । यहांतक आचार्य महाराजने नैयायिकोंके छलप्रकरणकी परीक्षा कर दी है। अब असत् उत्तरस्वरूप जातियोंका विचार करनेके लिये ग्रन्थकार विशेष प्रकरणका प्रारम्भ करते हैं । निस्य होकर अनेक द्रव्य, गुण, या कौमें समवाय संबंधसे वर्तनेवाली सामान्यस्वरूप जाति न्यारी है। यह जाति तो दोष है। स्वसाध्यादविनाभावलक्षणे साधने स्थिते । जननं यत्प्रसंगस्य सा जातिः कैश्विदीरिता ॥ ३०९ ॥ अपने साध्य के साथ अविनाभाव रखना इस हेतुके लक्षणसे युक्त हो रहे ज्ञापक साधनके व्यवस्थित हो जानेपर जो पुनः प्रसंग उत्पन्न करना है, यानी वादीके ऊपर प्रतिवादी द्वारा दूषण कथन करना है, उसको किन्हीं नैयायिकोंने जाति कहा है । ईरिता शसे यह ध्वनि निकलती है, कि जातिकी योग्यता नहीं होनेपर भी बलात्कारसे उसको जाति मनवानेकी नैयायिकोंने प्रेरणा की है। किन्तु बलात्कारसे कराये गये असमंजस कार्य अधिक कालतक स्थायी नहीं होते हैं। ___" प्रयुक्त हेतौ यः प्रसंगो जायते सा जातिः" इति वचनात् । " साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः " इस गौतमसूत्रके भाष्यमें वात्स्यायमने यो कथन किया है कि हेतुका प्रयोग करचुकनेपर जो प्रतिवादीद्वारा प्रसंग जना जाता है, वह जाति है। दिवादि गणकी " जनी प्रादुर्भावे " धातुसे मावमें कि प्रत्यय करनेपर जाति शब्द बनता है । अतः कुछ उपपदोंका अर्थ लगाकर निरुक्ति करनेसे जाति शब्दका यथार्थ नामा अर्थ निकल जाता है। शब्दकी निरुक्तिसे ही लक्षणस्वरूप अर्थ निकल आये, यह श्रेष्ठ मार्ग है। का पुनः प्रसंग ! इत्याह । किसी शिष्यका प्रश्न है कि माष्यकारद्वारा कहे गये जातिके क्षणमें पडे हुये प्रसंग शब्दका यहां फिर क्या अर्थ है ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानंदस्वामी वार्तिकद्वारा समाधानको कहते हैं।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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