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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः अतः केवळ नैयायिकोंके छलोंकी परीक्षा कर विशेष अमिमतको संक्षेपसे बताये देते हैं कि नैयायिकों का यह उक्त कथन भी विचार नहीं करनेपर तो रमणीय (सुन्दर) प्रतीत होता है, अन्यथा नहीं। हमको यहां नैयायिकोंके प्रति यह बतला देना है कि इस प्रकार प्रयुक्त किये जानेपर यानी गौण अर्थके अभिप्रेत होनेपर मुख्य अर्थके निषेधमात्रसे ही यदि किसी एक प्रतिवादीका निग्रह होना मान लिया जायगा, तब तो नैयायिक भी शून्यवादीके प्रति मुख्यरूपकरके प्रमाण, प्रमेय वादिका सर्वथा प्रतिषेध हो जानेका कटाक्ष कर देनेसे निग्रह प्राप्त हो जावेगा । क्योंकि लौकिक समीचीन व्यवहार करके प्रमाण, प्रमिति आदि पदार्थोको उस शून्यवादीने स्वीकार किया है। अर्थात्-संवृति यानी उपचारसे प्रमाण आदिक तत्वोंको माननेवाले शून्यवादीका प्रतिषेध यदि नैयायिक मुख्य प्रमाण आदिको मनवानेके लिये करते हैं। क्योंकि प्रमाण हेतु आदिको वस्तुभूत माने विना साधन या दूषण देना नहीं बन सकता है, तो यह नैयायिकोंका छल है । ऐसी दशामें नैयायिकोंके छललक्षण अनुसार शून्यादीकरके नैयायिकका निग्रह हो जाना चाहिये । यह स्वयं कुठाराघात हुला। तत्वोपप्लववादिओंने भी विचार करनेके प्रथम प्रमाण आदि तत्त्वोंको मान लिया है। सर्वथा शून्यतावादे प्रमाणादेविरुध्यते । ततो नायं सतां युक्त इत्यशून्यत्वसाधनात् ॥ ३०७ ॥ योगेन निग्रहः प्राप्यः स्वोपचारच्छलेपि चेत् । • सिद्धः स्वपक्षसिद्धयैव परस्यायमसंशयम् ॥ ३०८ ॥ जब कि वाद करनेमें प्रमाण, प्रमाता, द्रव्य, गुण आदिका सभी प्रकारोंसे शून्यपना विरुद्ध पडता है, अर्थात्-जो उपचार और मुख्य सभी प्रकारोंसे प्रमाण, हेतु, वाचकपद, श्रावणप्रत्यक्ष, आदिको नहीं मानेगा, वह वादी शास्त्रार्थके लिये काहेको मुंह बायेगा । अतः सिद्ध है कि शून्यवादी उपचारसे प्रमाण आदिको स्वीकार करता है तो फिर नैयायिकोंको प्रमाण आदिका प्रतिषेध उसके प्रति मुख्यरूपसे नहीं करना चाहिये । किन्तु नैयायिक उक्त प्रकार दूषण दे रहे हैं। तिस कारण अशून्यपनेकी सिद्धि हो जानेसे यह नैयायिकोंके ऊपर छल उठाना तो सज्जनोंको समुचित नहीं है, और नैयायिकोंके ऊपर विचारे शून्यवादी निग्रह उठाते भी नहीं है। यदि " जैसा बोया जाता है, वैसा काय जाता है" इस नीतिके अनुसार नैयायिक स्वके द्वारा उपचार छळ प्रवृत्त हो जानेपर भी शून्यवादीकरके निग्रहको प्राप्त कर दिये जायंगे, यानी नैयायिकोंकरके निग्रह प्राप्त कर लिया जायगा, इस प्रकार कहनेपर तो हमारा वही पूर्वका सिद्धान्त प्रसिद्ध हो गया कि अपने पक्षकी भके प्रकार सिद्धि कर देनेसे ही दूसरे प्रतिवादीका पराजय होता है। यह राधान्त संशय रहित होकर सिद्ध हो जाता है, तभी तो शून्यवादीका पक्ष पुष्ट हो चुकनेपर उस नैयायिकका निग्रह
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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