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तत्त्वायचिन्तामणिः
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आश्रयके बिना सम्भव नहीं है । अतः वह समुदाय भी अपने उस आश्रयसे विशिष्ट हो रहा प्रकर्ष रूपसे साधने योग्य करना चाहिये और उसका विशेष वह विशिष्ट समुदाय भी अपने अन्य पाश्रय करके विशिष्ट हो रहा साधा जावेगा । इस प्रकार करते करते अनवस्था हो जायगी। आत्माके साथ विद्वेष करनेवाले मूढचित्त वैशेषिकोंके यहां यों कहीं भी साध्यकी व्यवस्था ( अवस्थिति ) नहीं हो सकती है। भावार्थ-वैशेषिक जन आत्माको स्वयं ज्ञ नहीं मानते हैं । किन्तु सर्वथा भिन्न ज्ञानका समवाय हो जानेसे आत्माको ज्ञानवान् मान लेते हैं । ऐसी दशामें उनका आत्मा स्वयं अपनी गांठसे जड बना रहा । मनको भी वैशेषिक सर्वथा जड मानते हैं । भावमनका चैतन्य उन्हें अमीष्ट नहीं है। श्री समन्तमद्राचार्यने "कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न कचित,एकान्तमहरक्तेषु नाथ स्वपरवैरिषु" इस आप्तमीमांसा कारिका द्वारा एकान्तवादियोंको स्वयं निजका वैरी कहा है। प्रकरणमें धर्म
और धर्माके समुदायको साध्य बनानेपर फिर ऐसे साध्यके साथ हेतुका किसी अन्वय दृष्टान्तमें अविनाभाव साधनेपर अन्य आश्रयोंकी कल्पना करते करते अनवस्था दोष हो जाता है, यों कहा है।
विनापि तेन लिंगस्य भावात्तस्य न साध्यता । ततो न पक्षतेत्येतदनुकूलं समाचरेत् ॥ ६०॥ धर्मिणापि विना भावात्वचिल्लिंगस्य पक्षता।
तस्य माभूत्ततः सिद्धः पक्षः साधनगोचरः ॥ ६१ ॥
यदि कोई वैशेषिकोंके विरोधमें यों कहें कि उस धर्मविशिष्ट धर्मारूप पक्षके विना भी शापक हेतु वर्त जाता है, इस कारण उस समुदायको प्रतिज्ञा बनाते हुये साध्यपना नहीं है। तिस कारण उस समुदायको पक्षपना नहीं है, इसपर आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार यह कथन करना तो हमारे अनुकूल मार्गका मले प्रकार आचरण करेगा। दूसरी बात यह है कि कहीं कहीं धर्माके विना भी ज्ञापकहेतुका सद्भाव पाया जाता है । अतः उस धर्मीको पक्षपना नहीं हो सकता है । तिस कारणसे सिद्ध होता है कि स्वार्थानुमानके समान वादमें भी शक्य, अभिप्रेत, अप्रसिद्ध माने गये साध्यको साधनेवाले हेतुका विषय हो रहा धर्मी ही पक्ष मानना चाहिये ।
यादृगेव हि स्वार्थानुमाने पक्षा शक्यत्वादिविशेषणः साधनविषयस्ताहगेव परार्थानुमाने युक्तः स्वनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनाय प्रेक्षावतां परार्थानुमानप्रयोगात्, अन्यथा तल्लक्षणस्यासंभवादिदोषानुषंगात् ।
कारण कि स्वयं ज्ञप्ति करनेके लिये हुये स्वार्थानुमानमें जिस प्रकारका ही शक्यत्व आदि विशेषणोंसे युक्त हो रहा और ज्ञापक हेतुका विषय हो रहा प्रतिज्ञारूप पक्ष है, उस ही प्रकारका