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________________ तत्त्वाचिन्तामणिः तेन प्रकारेणोक्तो यो निषेधस्तस्याप्यसिद्धिप्रसक्तेरसमंजसमशेष स्यादिस्वनिस्य. नित्यसमवादिनः कुत इति चेत्, पक्षणासिद्धि प्राप्तेन समानत्वात्प्रतिषेधस्येति । निषेध्यो पत्र पक्षः प्रतिषेधस्तस्य प्रतिषेधका कथ्यते धीमद्भिः प्रतिपक्ष इति प्रसिद्धि योश्च पक्ष प्रतिपक्षयोः साधम्र्य प्रतिज्ञादिभिर्योग इष्यते तेन विना तयोः सर्वत्रासंभवात् । ततः मति ज्ञादियोगाद्यथा पक्षस्यासिदिस्तथा प्रतिपक्षस्याप्यस्तु । अथ सस्यपि साधम्ये पक्षप्रतिपक्षयोः पक्षस्यैवासिद्धिर्न प्रतिपक्षस्येति मन्यते तर्हि घटेन साधर्म्यात्कृतकत्वादेः समस्यानित्यतास्तु सकलार्थागत्वनित्यता तेन साधर्म्यमात्रात् मा भूदिति समंजसं ।। उक्त आठ कारिकाओंका तात्पर्य यों है । प्रतिवादी कहता है कि न्यायसिद्धान्लीने जो यह कहा था कि यह अनित्यसमा जाति दूषणाभास है । क्योंकि प्रतिवादी करके तिस प्रकारसे जो प्रतिषेध कहा गया है। प्रतिवादी द्वारा पकडे गये कुमार्गके अनुसार तो उस प्रतिषेधकी भी असिद्धि हो आनेका प्रसंग आता है। अतः यह सब प्रतिवादीकी चेष्टा करना व तिपूर्ण कही जावेगी । मैं कहता हूं कि यह अनित्यसमा जातिको कहनेवाले मेरा वक्तव्य भला अनीतिपूर्ण कैसे है ! बतानों । यो प्रतिवादीके कह चुकनेपर न्यायसिद्धान्ती उत्तर कहते हैं कि प्रतिवादी द्वारा किया गया प्रतिषेध तो बसिद्धिको प्राप्त हो रहे पक्षके समान है। इस कारण पक्षकी असिद्धि के समान प्रतिषेधको भी बसिद्धि हो जाती है । जब कि यहां तुम्हारे विचार अनुसार निषेध करने योग्य प्रतिषेष्य हो रहा अनित्यपन तो बादीका इष्ट पक्ष माना गया है । और बुद्धिमानों करके उसका प्रतिषेध करनेवाला निषेध तो प्रतिवादीका अभीष्ट प्रतिपक्ष कहा जाता है । बुद्धिशाली विद्यामोंके यहा इस प्रकार प्रसिद्धि हो रही है। और उन पक्ष, प्रतिपक्षोंका सधर्मपमा तो प्रतिक्षा, हेत, मादिक साथ योग होना इष्ट किया गया है। उस प्रतिज्ञा आदिके सम्बन्ध बिना सभी स्थलोंपर या सभी विचारशीलोंके यहां उन पक्ष प्रतिपक्षोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। तिस कारण जैसे प्रतिज्ञादिके योगसे वादीके पक्षकी बसिद्धि है, उसी प्रकार प्रतिवादीके अभिमत प्रतिपक्षको भी असिद्धि हो जावेगी। अब यदि तुम प्रतिवादी यो मान लो कि योडासा साधर्म्य होते हुये भी पक्ष,प्रतिपक्षोंमें से वादोके पक्षकी ही असिद्धि होगी, हमारे प्रतिपक्षकी तो असिद्धि नहीं हो सकती है। सिद्धान्ती कहते हैं कि तब तो इसी प्रकार घटके साथ साधर्म्य हो रहे कृतकपन, प्रयत्मजन्यत्व, आदितु. ओंसे शद्धकी अनित्यता तो हो जाओ और सम्पूर्ण पदार्थोंमें रहनेवाले उस सस्व धर्मके केवल साधर्म्यसे सकल भोंमें प्रसंग प्राप्त हो जानेवाली अनित्यता तो मत होमो, यह कथन नीतिपूर्ण जच रहा है। अपि च, दृष्टान्ते घटादौ यो धर्मः साध्यसाधनभावेन प्रज्ञायते कृतकत्वादिः स एवात्र सिदिहेतुः साध्यसाधनोरभिहितस्तस्य च केनचिदर्थेन सपक्षेण समामस्वारसापये 68
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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