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________________ ५३८ तत्त्वार्थ कोकवार्तिके केनचिद्विपक्षणासमानत्वाद्वैधय॑मिति निश्चयो न्यायविदा । ततो विशिष्टसाधर्म्यमेव हेतुः साध्यसाधनसामर्थ्यभाक् । स च न सर्वार्थेष्वनित्यत्वे साध्ये संभवतीति न सर्वगतः । सर्वे भावाः क्षणिकाः सत्त्वादिति सम्भवत्येवेति चेत् न, अन्वयासंभवाद्यतिरेकानिश्चयात् । किं च, न सत्त्वेन साधर्म्यात्सर्वस्य पदार्थस्यानित्यत्वसाधने सर्वो अविशेषसमाश्रयो दोषः पूर्वोदितो वाच्यः । सर्वस्यानित्यत्वं साधयन्नेव शद्रस्यानित्यत्वं प्रतिषेधतीति कथं स्वस्थ इत्यादि । तन्नेयमनित्यसमा जातिरविशेषसमातो भिद्यमानापि कथंचिदुपपत्तिमतीति । एक बात यह भी है कि घट, विद्युत्, आदिक दृष्टान्तोंमें जो कृतकपन आदिक धर्म साध्यके साधकपन करके भले प्रकार जाना जाता है, वही धर्म तो यहां पक्षों साध्यकी साधन द्वारा सिद्धि हो जानेका कारण कहा गया है। उसका किसी किसी सपक्ष अर्थके साथ समानपना होनेसे साधर्म्य हो रहा है । और किसी किसी विपक्ष हो रहे अर्थके साथ असमानपना हो जानेसे वैधर्म्य हो रहा है । यह न्यायवेत्ता विद्वानोंका निश्चय है । तिस कारणसे विशिष्ट अर्थके साथ हो रहा सधर्मापन ही हेतुकी शक्ति है । और साध्य के साधनेकी उस सामर्थ्यको धारनेवाला समीचीन हेतु होता है । वह समर्थ हेतु सम्पूर्ण अर्थोंमें सत्ता द्वारा अनित्यपनको साध्य करनेपर नहीं सम्भवता है । इस कारण सम्पूर्ण पदार्थोंमें ज्ञापक हेतु प्राप्त नहीं हो सका है । यदि कोई बो द्वमत अनुसार प्रतिवादीको ओरसे यों कहे कि सम्पूर्ण भाव क्षणिक है । सत्पना होने से इस अनुमानमें क्षणस्थितिको साधनेके लिये सम्पूर्ण पदार्थों में सत्त्व हेतु सम्भव रहा ही है। यों कहनेपर तो हम न्यायसिद्धान्ती कहेगें कि तुम उक्त कटाक्षको नहीं कर सकते हो । क्योंकि सबको पक्ष बना लेनेपर यानी सम्पूर्ण पदार्थोका एक ही क्षण ठहरना जब विवाद प्रस्त हो रहा है,तो पक्षके भीतर या बाहर साध्य के रहनेपर हेतुका रहना स्वरूप अन्वय नहीं बन सका है । अन्वयका असम्भव हो जानेसे व्यतिरेकका भी निश्चय नहीं हो सका है। दूसरी बात यह है कि सत्व करके साधर्म्य हो जानेसे सम्पूर्ण पदार्थोके अनित्यपनका प्रतिवादी द्वारा साधन करनेपर अविशेषसमामें होनेवाले सभी पूर्वोक्त दोष अनित्यसमामें कह देने चाहिये । थोडा विचारो तो सही कि सम्पूर्ण पदार्थोके अनित्यपनको साध रहा ही यह प्रतिवादी पुनः शब्दके अनिस्यपनका प्रतिषेध कर रहा है। ऐसी दशामें यह स्वस्थ ( होशमें ) कैसे कहा जा सकता है ! यों तो शब्दका अनित्यपन स्वयं प्रतिज्ञात हुआ जाता है । अतः व्याघात दोष हुआ । व्यभिचार आदिक दोष भी इसमें लागू हो जाते हैं । तिस कारण यह अनित्यसमा जाति अविशेषसमा जातिसे कथंचिद भेदको प्राप्त हो रही संती भी कैसे भी उपपत्तिको प्राप्त नहीं हो सकी । इस कारण यह प्रतिवादीका प्रतिषेध दूषणामास होता हुआ असमीचीन उत्तर है। अनित्यः शब्द इत्युक्ते नित्यत्वप्रत्यवस्थितिः । जातिनित्यसमा वस्तुरज्ञानात्संप्रवर्तते ॥ ४३७ ॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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