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________________ ५३६ तस्वार्थश्लोकवार्तिके तस्य केनचिदर्थेन समानत्वात्सधर्मता । केनचित्तु विशेषात्स्याद्वैधर्म्यमिति निश्चयः ॥ ४३४ ॥ हेतुर्विशिष्टसाधयं न तु साधर्म्यमात्रकं । साध्यसाधनसामर्थ्य भागयं न च सर्वगः ॥ ४३५॥ सत्त्वेन च सधर्मत्वात् सर्वस्यानित्यतेरणे। दोषः पूर्वोदितो वाच्यः साविशेषसमाश्रयः ॥ ४३६ ॥ " दृष्टान्ते च साध्यसाधनभावेन प्रज्ञातस्य धर्मस्य हेतुत्वात्तस्य चोभयथाभावान्नाविशेषः" इस गौतम सूत्रका भाष्य यों है कि दृष्टान्तमें भी जो धर्म साध्य साधकपने करके भळे प्रकार नाना जा रहा है, वही धर्म यहां हेतुपने करके साध्यरूप अर्थको साधनेवाला हेतु कहा गया है । और वह हेतु तो साधर्म्य, वैधH, इन दोनों प्रकारसे अपने हेतुपनकी रक्षा कर सकता है। देखिये, उस हेतुकी दृष्टान्तके किसी अर्थके साथ समान हो जानेसे साधर्म्य बन जाता है । और दृष्टान्तके किसी किसी अर्थ (धर्म) के साथ विशेषता हो जानेसे तो विधर्मापन बन जाता है । इस प्रकार अनुमानको माननेवाळे विद्वानोंके यहां निश्चय हो रहा है। इस कारण विशिष्ट रूपसे हुआ साधर्म्य ही हेतुकी ज्ञापकताका प्राण है । केवळ चाहे जिस सामान्य धर्मके साथ हो रहा विशेषरहित साधर्म्य तो हेतु. की सामर्थ्य नहीं है । जैसे कि केवळ धातुपना होनेसे पीतल, तांबा, ये सुवर्ण नहीं कहे जा सकते हैं, किन्तु विशेष भारीपन, कोमलता, अग्निप्ते तपानेपर अपने वर्णकी परावृत्ति नहीं कर अधिक मन्दर वर्णवाला हो जाना, औषधियोंका निमित्त मिलाकर भस्म कर देनेसे जीवन उपयोगी तत्वोंका प्रकट हो जाना आदिक गुण ही सुवर्णकी आत्मभूत सामर्थ्य है । वैसे ही साध्यको साधनेकी साधर्म्य विशेषरूप सामर्थ्यको धारनेवाला यह हेतु माना गया है । ऐसा हेतुसस्वके साधर्म्य मात्रसे सम्पूर्ण पदार्थोमे प्राप्त हो रहा नहीं है । अतः सत्त्वके साथ सधर्मापनसे सबके अनित्यपनका कथन करनेमें सामर्थ्यवान् नहीं है । दूसरी बात यह भी है कि इस अनित्यसमा जातिय पहिले कही गयी अविशेषसमा जातिके पाश्रय ( में ) कहे जा चुके सभी दोष यहां कथन करने योग्य हैं। भावार्थ-अविशेषसमा जातिमें दृष्टान्त और पक्षके एक धर्म हो रहे प्रयत्नजन्यत्वकी उपपत्तिसे अनित्यपना साधने. पर सम्पूर्ण वस्तुओंके एकधर्म हो रही सत्ताकी उपपत्तिसे सबके अविशेषपनका प्रसंग दिया गया है। उसी ढंगका अनित्यसमामें प्रतिषेध उठाया गया है ! अन्तर इतना ही है कि वहां सबका विशेषरहित हो जाना ही आपादन किया गया है। सर्व पदार्थोके माध्यसहितपनका प्रसंग नहीं दिया गया है। और यहां अनित्यसमामें सबके अनित्यपन साध्यसे सहित हो जानेका प्रसंग उठाया गया है। फिर भी अविशेषसमामें सम्भव रहे दोषोंका सद्भाव अनित्यसमामें भी पाया जाता है।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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