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________________ तत्वार्थ श्लोक वार्तिके रही शब्दों की पांच प्रकारकी प्रवृत्ति तो केवल व्यवहारसे ही है, निश्वयसे नहीं है, इस सिद्धान्तको यह एवंभूत मान रहा है। श्री अकलंकदेव भगवान्ने ज्ञानपरिणत आत्माको एवंभूतका सूक्ष्म विषय कहा है । जिस ज्ञान करके जो हो चुका है, उस करके ही उसका अध्यवसाय कराया जाता है 1 जैसे कि सौधर्म इन्द्रको इन्द्र नहीं कह कर देवदत्तकी इन्द्रके ज्ञानसे परिणमी हुयी आत्माको ही या इन्द्रज्ञान को ही इन्द्र कहना । अथवा आग है, इस प्रकारके ज्ञानसे परिणत हो रही आत्मा ही अग्नि है, यह एवंभूतनयका विषय है । " मूळोण्णपहा अग्गी " उष्णस्पर्शवाले पौगलिक पदार्थको एवंभूत नयसे अग्नि नहीं कहा जाकर ज्ञानको अग्नि कहना यह इसका परमसूक्ष्म विषय समझा जाता है । एवमेते शब्दसमभिरूढैवंभूतनयाः सापेक्षाः सम्यक्, परस्परमनपेक्षास्तु मिथ्येति प्रतिपादयति । २६८ और प्रतिपक्षी धर्मोकी । अन्यथा प्रमाण और इस प्रकार ये शद्ब, समभिरूढ, एवंभूत तीन नय यदि अपेक्षाओं से सहित हो रहे हैं, तब तो समीचीन नय हैं । और परस्पर में अपेक्षा नहीं रखते हुये केवळ एकान्तसे अपने विषयका आग्रह करनेवाले तो ये तीनों मिथ्या हैं । कुनय हैं अर्थात् 'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत् ' ( श्री समन्तभद्राचार्यः ) । प्रतिपक्षी धर्मका निराकरण करनेवाले कुनय हैं अपेक्षा रखनेवाले सुनय हैं । अपेक्षासहितपनका अर्थ उपेक्षा रखना है नयों में कोई अन्तर नहीं ठहर सकेगा । प्रमाणोंसे उन धर्मोकी और अन्य धर्म या धर्मोकी भी प्रतिपत्ति हो जाती है । तथा नयसे अन्य धर्मोका निराकरण नहीं करते हुये उसी धर्मकी प्रतिपत्ति होती है । किन्तु दुर्नयसे तो अन्य धर्मोका निराकरण करते हुये एक ही धर्मका आग्रह किया जाता है । इस बातको स्वयं ग्रन्थकार श्री विद्यानन्द स्वामी समझाये देते हैं । पहिले चार नयका आभास तो साथ के साथ लगे हात कह दिया गया है । अब शद्व समभिरूढ, एवंभूत तीनों नयोंका आभास यहां एक साथ कहें देते हैं । सुनिये और समझिये । एतेन्योन्यमपेक्षायां संतः शद्वादयो नयाः । निरपेक्षाः पुनस्ते स्युस्तदाभासाविरोधः ॥ ८० ॥ ये शद्व आदिक तीन नय परस्पर में स्वकीय स्वकीय विषयोंकी अथवा अन्य धर्मोकी अपेक्षा रखनेपर तो सन्तः यानी समीचीन नय हैं । किन्तु परस्पर में नहीं अपेक्षा रखते हुये तो फिर वे तीनों उनके आभास हैं । अर्थात्-शद्वनय यदि सममिरूढ और एवंभूतके नेय धर्मोकी अपेक्षा नहीं रखता है, तो यह शद्वामास है । तथा समभिरूढ नय यदि शद्ब और एवंभूतके विषयका निराकरण कर केवल अपना ही अधिकार जमाना चाहता है, तो वह समभिरूढाभास है । इसी प्रकार एवंभूत भी शब्द और समभिरूढ के विषयका तिरस्कार करता हुआ एवंभूताभास है । क्योंकि
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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