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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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ऐसा करनेसे विरोध दोष आता है । धर्ममें अनेक धर्मोके विद्यमान होनेपर यदि दूसरोंकी सम्पत्तिका नाश कर अपना ही दबदबा गांठा जायगा तो स्पष्टरूपसे विरोध दोष आकर खडा हो जाता है । वस्तुतः विचारा जाय तो अपने भाइयोंकी या अपने आश्रयदाताओंकी सदा अपेक्षा करनी चाहिये किन्तु उनकी उपेक्षा करने की भी उपेक्षा कर उनके सर्वथा नाश करनेका अभिप्राय किया जायगा तो यह कुनीति है, यो द्वन्द्वयुद्ध मच जायगा । शरीरके हाथ, पांव, मुख, नेत्र, आदि अवयव ही यदि किसी खाद्य या पेयपदार्थको हडपना चाहेंगे तो सब परस्परकी ईण्यामें घुलकर मर जावेंगे । हां, मिलकर उसका उपभोग करनेसे वे परिपुष्ट बने रहेंगे ।
के पुनरत्र सप्तसु नयेष्वर्थप्रधानाः के च शब्दप्रधाना नया: १ इत्याह ।
इन सातों नयोंमें कितने तो फिर अर्थकी प्रधानतासे व्यवहार करने योग्य नय है ? और इन सातोंमें कौनसे नय शब्दकी प्रधानतापर प्रवर्त रहे हैं ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्दस्वामी समाधान कहते हैं ।
तत्रर्जुसूत्रपर्यंताश्चत्वारोर्थनया मताः ।
त्रयः शब्दनयाः शेषाः शब्दवाच्यार्थगोचराः ॥ ८१ ॥
उन सात नयोंमें नैगमसे प्रारम्भ कर ऋजुसूत्र पर्यन्त चार तो अर्थनय मानी गयी हैं । बादरायण सम्बन्ध के सदृश केवल वाध्य वाचक सम्बन्धकी अत्यल्प अपेक्षा रखते हुये प्रतिपादक शब्द करके अथवा कचित् शब्द के बिना भी परिपूर्ण अर्थपर दृष्टि रखनेवाले नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र ये चार नय हैं। शेष बचे हुये नय तो वाचक शब्दद्वारा कहे गये अर्थको विषय करने वाले शब्द, समभिरूढ, एवंभूत, ये तीन शद्वनय हैं। इन तीनोंकी शब्दके वाच्य अर्थमें विशेषरूपसे तत्परता रहती है । और पहिले चार नयोंकी अर्थकी ओर विशेष लक्ष्य रहता है । यहाँ आज्ञाप्रधानी और परीक्षाप्रधानीके श्रद्धेय विषयोंके समान गौण, मुख्य, रूपने अर्थ और शब्दद्वारा वाध्यकी व्यवस्था कर निर्वाह कर लेना चाहिये ।
कः पुनरत्र बहुविषयः कश्चाल्पविषयो नय इत्याह ।
पुनः विनीत शिष्यका प्रश्न है कि इन सात नयों में कौनसा नय बहुत ज्ञेयको विषय करता है ? और कौनसा नय अल्पज्ञेयको विषय करता है ? तिसके उत्तरमें आचार्य महाराज - वार्तिकको कहते हैं । साथमें कौन नय कार्य है ? और कौनसा नय कारण है ? यह प्रश्न भी छिपा हुआ है, उसका भी उत्तर दे देवेंगे ।
पूर्वः पूर्वो नयो भूमविषयः कारणात्मकः ।
परः परः पुनः सूक्ष्मगोचरो हेतुमानि ॥ ८२ ॥