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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके यहां पहिले पहिले कहा गया नय तो बहुत पदार्थोंको विषय करनेवाला है । और कारण स्वरूप हो रहा है । किन्तु फिर पौछे पीछे कहा गया नय तो अल्प पदार्थोंको विषय करता है । और कार्यस्वरूप है । अर्थात् — बहुत विषयोंको जाननेवाले नैगम की प्रवृत्ति हो चुकनेपर उसके व्याप्य हो रहे अल्प विषयोंको जानता हुआ संग्रह नय प्रवर्तता है। अधिक विषयोंको जानमेवाळे संग्रहकी प्रवृत्ति हो चुकनेपर उसके व्याप्य स्तोक विषयोंको इसी प्रकार आगे भी नयोंमें लगा लेना तथा यहां लौकिक कार्यकारणभाव तो अव्यवहित पूर्ववर्ती व्यापारवाले और उत्तरवर्त्ती पदार्थों में सम्भवता है । २७० जान रहा व्यवहार नय प्रवर्त्तता है । कार्यकारणभाव विवक्षित है । शास्त्रीय उसके उपकारको झेलनेवाले अव्यवहित तत्र नैगमसंग्रहयोस्तावन्न संग्रहो बहुविषयो नैगमात्परः । किं तर्हि, नैगम एव संग्रहात्पूर्वं इत्याह । सबसे पहिले उन नयोंमें यह विचार है कि नैगम, संग्रह, नयों में परली ओर कहा गया संग्रहनय तो पूर्ववत्ती नैगमसे अधिक विषयवाला नहीं है, तो क्या है ? इसका उत्तर यही है कि नैगमनय ही संग्रहनयसे पूर्व में कहा गया अधिक पदार्थोंको विषय करता है । इस बातको स्वयं ग्रन्थकार कहते हैं । सन्मात्रविषयत्वेन संग्रहस्य न युज्यते । महाविषयताभावाभावार्थान्नैगमान्नयात् ॥ ८३ ॥ यथा हि सति संकल्पस्तथैवासति वेद्यते । तत्र प्रवर्तमानस्य नैगमस्य महार्थता ॥ ८४ ॥ सद्भूत पदार्थ और असद्द्भुत अभाव पदार्थ दोनों संकल्पित अर्थोको विषय करनेवाले नैगम नयसे केवल सद्भूत पदार्थोंको विषय करनेवाला होनेसे संग्रह नयकी अधिक विषयज्ञता उचित नहीं है । भावार्थ – संकल्प तो विद्यमान हो रहे अथवा भूत, भविष्यत् कालमें हुये, होनेवाले, या कदाचित् नहीं भी होनेवाले अविद्यमान पदार्थोंमें भी उपज जाता है । किन्तु संग्रहनय केवल सद्भूत पदार्थोंको ही जानता है । असद्भूत अर्थोंको नहीं छूता है । अतः नैगमसे संग्रहका विषय अल्प है । कारण कि जिस प्रकार सत् पदार्थों में संकल्प होता है, उसी प्रकार असत् पदार्थों में भी होता हुआ संकल्प जाना जा रहा है। अतः उस असत् अर्थमें भी प्रवर्त रहे नैगमनयको महाविषयोंका ज्ञातापन है । संग्रहाद्व्यवहारो बहुविषय इति विपर्ययमपाकरोति । संप्रनयसे व्यवहारनय अधिक विषयवाला है, इस विपर्ययज्ञानका ग्रन्थकार प्रत्याख्यान करते हैं ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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