SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः २६७ समय पढाने वाला अध्यापक नहीं है । धान्य पक रहा है, अग्नि या आतप पका रहा है । नवगणी क्रियाका अर्थ न्यारा है । और ण्यन्तके प्रयोगका अर्थ भिन्न है । अतः अपनी अपनी प्रत्ययवती प्रकृति के द्वारा वाच्य क्रियामें परिणत हो रहे अर्थका इस एवंभूत नय द्वारा विज्ञापन होता रहता है । " पाकावर्थत्व संजनात् " ऐसा पाठ माननेपर तो यों अर्थ कर किया जाय कि पढ रहा है, का अर्थ पक रहा है भी हो जावेगा । इस प्रसंगको रोकनेवाला कोई नहीं है । न हि कश्चिदक्रिया शद्बोस्यास्ति गौरव इति जातिशद्ध | भिमतानामपि क्रियाशद्ध - त्वात् आशुगाम्यश्व इति, शुक्लो नील इति गुणशद्वाभिमता अपि क्रियाशद्वा एव । शुचिभवनाच्छुक्लः नीलानाभील इति देवदत्त इति यदृच्छशद्वाभिमता अपि क्रियाशद्वा एव देव एव (एनं देयादिति देवदत्तः यज्ञदत्त इति । संयोगिद्रव्यशद्वाः समवायिद्रव्यशद्वाभिमताः क्रियाशद्वा एव । दंडोस्यास्तीति दंडी विषाणमस्यास्तीति विषाणीत्यादि पंचती तु शद्वानां प्रवृत्तिः व्यवहारमात्रान्न निश्चयादित्ययं मन्यते । प्रायः सभी शद्ब भू आदिक धातुओंसे बने हैं। भू आदिक धातुऐं तो परिस्पंद और अपरिस्पंद रूप क्रियाओं को कह रही हैं, जगत् में ऐसा कोई 'शद्व नहीं है, जो कि क्रियाका वाचक नहीं होय । अश्व, गो, मनुष्य आदिक शब्द अश्त्रत्व आदि जातिको कह रहे स्वीकार कर लिये गये हैं। वे भी क्रियाशद्व ही हैं । यानी क्रियारूप अर्थोको ही कह रहे हैं। शीघ्र गमन करनेवाला अश्व कहा जाता है । अश भोजन " धातुसे अश्त्र शब्द बनानेपर स्वाने वाला कहा जाता है । गमन करनेवाला पदार्थ गौ कहा जाता है । जो शुक्ल, नील, रस आदि शद्व गुणवाचक स्वीकार किये गये हैं, वे भी क्रियाशद्व ही है । शुचि होना यानी पवित्र हो जाना क्रियासे शुक्ल है । to रंगरूप क्रियासे नील है । रसा जाय यानी चाटना रूप क्रियासे रस माना गया है । इसी प्रकार यदृच्छा शद्वों करके स्वीकार किये गये देवदत्त, यज्ञदत्त इत्यादिक शब्द भी क्रिया शद्ब ही हैं । लौकिक जनकी इच्छा के अनुसार बालक, पशु आदिके जो मन चाहे नाम रख लिये जाते हैं । वे देवदत्त आदिक यदृच्छाशद्व हैं । देव ही जिसको देवे वह पुरुष इस क्रिया अर्थको धारता हुआ देवदत्त है । यज्ञमें जिस बालकको चुका है, यों वह यज्ञदत्त है । इस प्रकार यहां भी यथायोग्य क्रियाशद्वपना घटित हो जाता है । भ्रमण, स्यन्दन, गमन, धावति, आगच्छति, पचन, आदि क्रियाशद्व तो क्रिया वाचक हैं ही। संयोग सम्बन्धसे दंड जिसके पास वर्तरहा है, सो वह दंडी पुरुष है । इस प्रकारकी क्रियाको कह रहे संयोगी द्रव्यशद्व भी क्रियाशद्व ही हैं । तथा समवाय सम्बन्धसे सींगरूप अवयव जिस अवयवी बैल या महिषके वर्त रहे हैं, वह विषाणी है । इत्यादि प्रकार मान लिये गये समवायी द्रव्यशद्ब भी क्रियाशब्द ही हैं। सभी शब्दों में क्रियाशद्वपना घट जाता है । जातिशब्द गुणशब्द क्रियाशब्द एवं संयोगीशब्द, समवायीशब्द या यदृच्छाशब्द और सम्बन्ध वाचकशब्द इस प्रकार प्रसिद्ध हो दिया जा
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy