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तत्त्वार्थचोकवार्तिके
शुद्धबुद्धियोंको धारनेवाले विद्वान् उन दो प्रकारके अधिगमोंमें परार्थ अधिगम ( वाद ) को दो प्रकारका समझ रहे हैं । पहिला तो जिन सज्जनोंके कोई रागद्वेष नहीं, उन वीतराग पुरुषोंमें हो रहा वचनव्यवहार स्वरूप है । गोचरका अर्थ विषय है, सप्तमी विभक्तिका अर्थ कहींपर विषयपना होता है। " विषयत्वं सप्तम्यर्थः " । तथा दूसरा अधिगम तो परस्परमें जीतनेकी अभिलाषाको रखनेवाले वादी पुरुषों में प्रवर्तता है । अर्थात्-वीतराग पुरुषों में होनेवाला और विजगीषु पुरुषों में प्रवर्तनेवाला इस प्रकार शब्द आत्मक पदार्थ अधिगम दो प्रकारका है।
सत्यवाग्भिर्विधातव्यः प्रथमस्तत्ववेदिभिः । यथा कथंचिदित्येष चतुरंगो न संमतः ॥३॥
वीतराग पुरुषों में होनेवाला पहिला शब्दस्वरूप अधिगम तो सत्यवचन कहनेवाले तत्त्ववेत्ता पुरुषोंकरके विधान करने योग्य है । यह संवाद तो यथायोग्य चाहे किसी भी प्रकारसे कर लिया जाता है । सभ्य, सभापति, वादी और प्रतिवादी इन चार अंगोंका होना यहाँ बावश्यक नहीं माना गया है । भावार्थ-जब विचार करनेवाले सज्जन पुरुष हैं, तत्त्वज्ञानको करनेके लिये उनका शुभ प्रयत्न है तो एकान्तमें दो ही अंशोंसे यह प्रवर्त जाता है । तीन या चार मी होय तो कोई बाधा नहीं है । किन्तु सभ्य और सभापतियोंकी चलाकर कोई आवश्यकता नहीं है।
प्रवक्त्राज्ञाप्यमानस्य प्रसभज्ञानपेक्षया । तत्त्वार्थाधिगमं कर्तुं समर्थोऽथ च शास्वतः ॥४॥ विश्रुतः सकलाभ्यासाज्ञायमानः स्वयं प्रभुः।
ताइक्सभ्यसभापत्यभावेपि प्रतिबोधकः ॥ ५॥
यह वीतराग पुरुषों में होनेवाला वाद तो प्रकृष्ट माननीव वक्ताके द्वारा आज्ञापित किये जा रहे पुरुषका हठज्ञानी पुरुषोंकी नहीं अपेक्षा करके तत्वार्थीका अधिगम करनेके लिये समर्थ है।
और वह वाद सर्वदा हो सकता है । अर्थात्-प्रकृष्ट ज्ञानी पुरुषके आज्ञा अनुसार कोई भी कदाप्रहको नहीं करनेवाला पुरुष चाहे जब तत्त्वार्थीका निर्णय करनेके लिये सम्बाद कर सकता है । जो प्रकृष्टवक्ता सम्पूर्ण विषयोंके शास्त्रका अभ्यास करनेसे जगत् प्रसिद्ध विद्वान् होकर जाना जा रहा है, और जो स्वयं दूसरोंको समझाने के लिये समर्थ होता हुआ उनको स्वकीय सिद्धान्तके घेरेमें घेरनेके लिये प्रभुता युक्त है, वह तिस प्रकारके अन्य सभ्य और सभापतिके अभाव होनेपर भी निर्णिनीषु पुरुषों को प्रतिबोध करा देता है।