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तत्वार्थचिन्तामणिः .
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अविशेषोदिते हेतौ प्रतिषिद्धे प्रवादिना । विशेषमिच्छतः प्रोक्तं हेत्वंतरमपीह यत् ॥ १८५॥ तदेवमेव संभाव्यं नान्यथेति न निश्चयः । परस्मिन्नपि हेतौ स्यादुक्ते हेत्वंतरं यथा॥१८६॥ यथा च प्रकृते हेतौ दोषवत्यपि दर्शिते । परस्य वचनं हेतोर्हेत्वंतरमुदाहृतम् ॥ १८७ ॥ तथा निदर्शनादौ च दृष्टांताद्यंतरं न किम् । निग्रहस्थानमास्थेयं व्यवस्थाप्यातिनिश्चितम् ॥ १८८ ॥
न्याय दर्शनके अनुसार इस प्रकरणमें हेत्वन्तरका लक्षण यों बढिया कहा गया है कि वादीके द्वारा विशेषोंकी अपेक्षा नहीं कर सामान्यरूपसे हेतुका कथन करदेने पर पुनः प्रतिवादी करके वादीके हेतुका प्रतिषेध हो चुकनेपर विशेष वंश या हेतुमें कुछ विशेषण लगा देनेकी इच्छा रखनेवाळे वादीका हेस्वन्तर निग्रहस्थान हुआ बताया गया है। इसपर आचार्य महाराजका यह कहना है कि यहां नैयायिकोंने जो हेत्वन्तर निग्रहस्थान माना है, वह इस ही प्रकारसे सम्भवता है। सूत्रोक्त लक्षणसे अन्य प्रकारों करके हेत्वन्तर नहीं सम्मवता है, ऐसा निश्चय करना ठीक नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार नैयायिकोंके यहां विशेषणसहित दूसरे भी हेतुके कह देनेपर हेत्वन्तर निग्रहस्थान हो जाना का गया है, और जिस प्रकार वादीके प्रकरणप्राप्त हेतुको दोषयुक्त भी प्रतिवादी द्वारा दिखला देनेपर दूसरे नवीन हेतुका कथन करना वादीका हेत्वन्तर निग्रहस्थान कहा गया है, उसी प्रकार वादी करके प्रकृत साध्यको साधनेके लिये दृष्टान्त, उपनय, निगमन कहे गये पुनः प्रतिवादीने उन दृष्टान्त आदिको दोषयुक्त कर दिया, वादीने पश्चात् अधिक निषित किये गये दृष्टान्त आदिकोंको व्यवस्थापित कर कह दिया, ऐसी दशामें हेत्वन्तरके समान दृष्टान्तान्तर, निगमनान्तर आदिको न्यारा निग्रहस्थान क्यों नहीं श्रद्धान कर लिया जावे ? बात यह है कि कमी कोई बात सामान्य रूपसे भी कही जाती है। वहां सुननेवालों से कोई लघुपुरुष कुचोध उठा देता है। और दूसरे गंभीर पुरुष विशेष अंशोंकी कल्पना करते हुये बक्ताके यथार्थ अभिप्रायको समझ लेते हैं । गृह अधिपतिमे मृत्यको आज्ञा दी कि अमुक अतिथिको भोजन करा दो, चतुर सेवक तो अतिथिके स्नान, दन्तधावन, मोजन, दुग्धपान, शयन आदि सबका प्रबन्ध कर देता है। किन्तु अज्ञ नौकर तो अतिथिको केवल भोजन करा देगा। जलपान, दुग्धपान भी नहीं करायेगा । वक्ताके अभिप्रायका श्रोताको सर्वथा लक्ष्य रखना चाहिये, तभी तो अत्यल्प संख्यात शब्द ही असंख्यात,
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