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________________ तत्वार्थ श्लोकवार्तिके अन्यथानुपपत्तिविक होनेसे उस हेतुसरीखा किन्तु हेतुके लक्षणसे रहित हो रहा हेत्वाभास माना जावेगा तथा जो हेतु साध्यसे विपरीत के साथ व्याप्ति रखना स्वरूप विरुद्वपन दोषसे साध्यसिद्धिको नहीं कर सकेगा वह भी अन्यथानुपपत्तिरहितपन दोषसे आक्रान्त है । अतः हेत्वाभास है । बौद्धों को हेतुके तीन दोष नहीं मानकर एक अविनाभाव विकलता ही हेत्वाभास मान लेना चाहिये । ४२८ असिद्धादयोपि हेतवो यदि साध्याविना भावनियमलक्षणयुक्तास्तदा न हेत्वाभासा भवितुमर्हति । न चैवं तेषां तदयोगात् । न ह्यसिद्धः साध्याविनाभावनियतस्तस्य स्वयमसत्त्वात् । नाप्यनैकांतिको विपक्षेपि भावात् । न च विरुद्धो विपक्ष एव भावादित्यसिद्धादिप्रकारेणाप्यन्यथानुपपन्नत्ववैकल्यमेव हेतोः समर्थ्यते । ततस्तस्य हेत्वाभासत्वमिति संक्षेपादेक एव हेत्वाभासः प्रतीयते अन्यथानुपपन्नत्वनियमकक्षणैकहेतुवत् । अतस्तद्वचनं वादिनो निग्रहस्थानं परस्य पक्षसिद्धाविति प्रतिपत्तव्यं । असिद्ध, व्यभिचारी आदिक हेतु भी यदि साध्य के साथ नियमपूर्वक अविनाभाव रखना रूप लक्षणसे युक्त हैं, तब तो वे कथमपि हेत्वाभास होनेके लिये योग्य नहीं हैं । किन्तु असिद्ध आदि हेत्वाभासों के कदाचित् भी इस प्रकार अविनाभावनियमसहितपना नहीं है। क्योंकि उन असिद्ध आदि असद्धेतुओं के उस अविनाभावका योग नहीं है । जैसे कि क्रूरहिंसकके दयाका योग नहीं है, जो क्रूर कषायी है, वह दयावान् नहीं है, और जो करुणाशील है, वह तीव्र कषायी नहीं है, उसी प्रकार जो हेतु अविनाभावविकल है, वह सत हेतु नहीं और जो अविनाभाव सहित सत् हेतु हैं वो असिद्ध आदि रूप हेत्वाभास नहीं है। देखिये, जो असिद्ध हेत्वाभास है, वह साध्य के साथ अविनाभाव रखना रूप नियमसे युक्त नहीं है । क्योंकि वह स्वयं पक्ष में विद्यमान नहीं है । " शद्वोऽनित्यः चाक्षुषत्वात् " यहां पक्षमें ठहर कर चाक्षुषत्व हेतुका अनित्यत्वके साथ अविनाभाव नहीं देखा जाता है । इस प्रकार अनैकान्तिक हेत्वाभास भी साध्य के साथ अविनाभाव रखनेवाला नहीं है । क्योंकि वह विपक्षमें भी वर्त रहा है । तथा विरुद्ध भी साध्याविनाभावी नहीं है। क्योंकि वह विपक्ष ही में विद्यमान रहता है । इस कारण असिद्ध, व्यभिचारी आदि प्रकारों करके भी हेतुकी अन्यथानुपपत्तिसे विकलताका ही समर्थन किया गया है । तिस कारणसे सिद्ध होता है कि उस अकेली अन्यथानुपपत्तिविकलताको हो हेत्वाभासपना है । इस कारण संक्षेपसे एक ही बाभास प्रतीत हो रहा है । जैसे कि अन्यथानुपपत्तिरूप नियम इस एक ही लक्षणको धारनेवाले सद्धेतुका प्रकार एक ही है । अतः उस एक ही प्रकार के हेत्वाभासका कथन करना वादीका निग्रहस्थान होगा । किन्तु दूसरे प्रतिवादीके द्वारा अपने पक्षकी सिद्धि कर चुकनेपर ही वादीका निग्रह हुआ निर्णीत किया जायगा । अन्यथा दोनों एकसे कोरे बैठे रहो । जय कोई ऐसी सेंत मेतकी वस्तु (चीज) नहीं है, जो कि यों ही थोडीसी अशुद्धि निकालने मात्रसे प्राप्त हो जाय। उस जयके लिये सयुक्ति 1
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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