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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः इसी बातको हम जैन बहुत देरसे कह रहे हैं। फिर ज्ञानकी योग्यता तो अपने आवरण करनेवाले कर्मोका क्षयोपशमविशेष ही है । इस बातको हम बहुत करके पूर्व प्रकरणोंमें कह चुके हैं । यहां इतना ही कहना है कि ज्ञानावरण कर्मीका विशेषरूपसे विराम हो जानास्वरूप योग्यताके नहीं होने से मतिद्वान और श्रुतज्ञान अनन्तपर्यायोंको नहीं जाना पाते हैं। इस सूत्रका सारांश। ___ इस सूत्रके प्रकरण यों हैं कि जानके विषयोंमें अनेक प्रवादियोंकी विप्रतिपत्तियां हैं। अतः पहिले दो ज्ञानोंके विषयों पडे हुये विवादको निवृत्ति के लिये सूत्र कहना आवश्यक बताकर सूत्रोक्त पदोंका लक्षण किया है। पूर्व सूत्रसे केवळ विषय शब्दकी अनुवृत्ति की गई है । अनुवृत्ति की गयी शब्दावली विचारी मिन मिल परिस्थितीके अनुसार अनेक विमक्ति या वचनोंको धार लेती हैं। जैसे कि विमिन व्यवहारवाळे कुलोंमें जाकर वधूटी अपने स्वभावोंको तदनुसार कर देती है । केवळ पर्यायों अथवा केवल द्रव्यकों ही विषय करनेवाले दोनों ज्ञान नहीं हैं। ये दोनों ज्ञान अन्तरंग और बहिरंग अर्थोको जानते हैं । यहाँपर बौद्धोंके साथ अच्छा विचार किया गया है। विशेष युक्तियोंकरके विज्ञानाद्वैतका प्रत्याख्यान कर अनेकान्तको साधा है। स्मरण आदिक ज्ञान भी बहिरंग अर्थोको विषय करते हैं । निरालम्बन नहीं है। श्रुतज्ञान अमेकान्तस्वरूप वस्तुका अच्छा प्रकाश • करता है। श्रुतज्ञानको प्रमाण मानना चाहिये, अन्यथा अपने सिद्धान्तका दूसरेके लिये प्रतिपादन करना अशक्य है । अविद्यास्वरूप शास्त्रोंसे वस्तुभूत तत्वोंकी सिद्धि नहीं हो सकती है। द्रव्य और पर्याय दोनों वास्तविक पदार्थ हैं। विशिष्टरूपसे ज्ञानावरणका विनाश नहीं होनेके कारण अनन्तपर्यायोंको मतिज्ञान और श्रुतबान नहीं जान सकते हैं। प्रतिपक्षी कोका क्षयोपशम या क्षयस्वरूप योग्यता ही शानद्वारा विषय ग्रहणमें नियमकारिणी है । अन्य तादूप्य आदिका व्यभिचार देखा जाता है। वर्तमानकाळके जीवोंमें छोटे कीटसे लेकर उद्भट विद्वानोंतकमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानोंका परिवार फैला हुआ है। मैक्स मेरेजम, भूशास्त्रविज्ञान, ज्योतिषशास्त्र आदिक बान उक्त ज्ञानोंकी ही शाखायें हैं । इस प्रकार मतिज्ञान श्रुतज्ञानकी विषय व्यवस्था निर्णीत कर लेनी चाहिये । द्रव्येषु जीवादिषु पर्ययेषु त्वल्पेषु नानन्तविकल्पितेषु । सालम्बने सद्विषये निबद्ध मतिश्रुतेस्तां निजरूपलन्ध्यै ॥१॥ मतिज्ञान श्रुतबानों के विषयोंका नियम कर अब क्रमप्राप्त अवधिज्ञानके विषयोंकी नियतिको दिखलानेके लिए श्री उमास्वामी महाराज अपनै कलानिधि आत्माचन्द्रसे सूत्रस्वरूप कलाका प्रसार कर मण्यचकोरोंको संतृप्त करते हैं।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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