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________________ तत्वार्थश्लोकवार्तिके रूपिष्ववधेः ॥२७॥ __-रूपवान् पदार्थों में अवधिज्ञानका विषय नियमित हो रहा है । अर्थात-धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन अमूर्त द्रव्योंको छोडकर पुद्गलके साथ बन्धको प्राप्त हो रहे मूर्त जीवद्रव्य और पुद्गल द्रव्य तथा इन दो द्रव्योंकी कतिपय ( असंख्याती ) पर्यायोंमें अवधिज्ञानकी प्रवृत्ति नियत हो रही समझनी चाहिये । किमर्थमिदं सूत्रमित्याह । इस सूत्रको श्री उमास्वामी महाराज किस प्रयोजनकी सिद्धिके लिये कह रहे हैं, ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य महाराज वार्तिकद्वाग समाधान कहते हैं। प्रत्यक्षस्यावधेः केषु विषयेषु निबन्धनम् । इति निर्णीतये प्राह रूपिष्वित्यादिकं वचः ॥ १ ॥ आदिके दो मति और श्रुत इन परोक्ष ज्ञानोंके विषयका नियम कर तीसरे प्रत्यक्षबान स्वरूप हो रहे अवधिका किन विषयोंमें नियम हो रहा है ! इसका निर्णय करनेके लिये “ रूपिष्ववधेः " -इस प्रकार सूत्रवचनको श्री उमास्वामी महाराज बहुत अच्छा कह रहे हैं । इस सूत्रके कहे विना अवधिज्ञान के विषयका नियम करना कथमपि नहीं हो सकता है। रूपं पुद्गलसामान्यगुणस्तेनोपलक्ष्यते । स्पर्शादिरिति तद्योगात् रूपिणीति विनिश्चयः ॥२॥ रूपी शद्वमें मत्वर्षीय इन प्रत्यय नित्ययोगको कहनेवाली हैं, पुद्गलद्रव्यका सम्पूर्ण ही पुद्गल द्रव्योंमें पाया जाय ऐसा सामान्यगुणरूप है । उस रूपकरके अविनाभाव रखनेवाले स्पर्श, रस, गन्ध, आदि गुण भी उपलक्षण कर पकड लिये जाते हैं। जैसे कि " कौआसे दहीकी रक्षा करना" यहां उपलक्षण हो रहे काक पदसे दहीके उपघातक सभी पशुपक्षियोंका ग्रहण हो जाता है। इस प्रकार उस रूपका योग हो जानेसे रूपवाले पदार्थमें ऐसा कहनेसे रूपवाले, रसवाले, गन्धवाले पदार्थोंमें अवधिज्ञान प्रवर्तता है ऐसा विशेष निश्चय कर लिया जाता है। तेष्वेव नियमोऽसर्वपर्यायेष्ववधेः स्फुटम् । द्रव्येषु विषयेष्वेवमनुवृत्तिर्विधीयते ॥ ३ ॥ उन रूपवाले द्रव्योंमें ही और उनकी अल्प पर्यायोंमें ही अवधिज्ञानका विषय नियम स्पष्ट रूपसे विशद हो रहा है । यो उद्देश्य दळमें " एवकार " लगा लिया जाय, इस सूत्रमें पूर्व सूत्रसे
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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