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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ६३ द्रव्येषु और असर्व पर्यायेषु तथा पूर्व पूर्व सूत्रसे " विषयेषु " इस प्रकार तीन पदोंकी अनुवृत्ति कर ली जाती है, " निबन्धः " यह पद भी चला आ रहा है । अतः अवधिज्ञानका विषयनिबन्ध रूपी द्रव्योंमें और उनकी असर्वपर्यायों में है, यह वाक्यार्थ बन जाता 1 रूपं मूर्तिरित्येके, तेषामसर्वगतद्रव्यपरिमाणं मूर्तिः स्पर्शादिर्वा मूर्तिरिति मतं स्यात् । प्रथमपक्षे जीवस्य रूपित्वप्रसक्तिर सर्वगतद्रव्यपरिमाणलक्षणाया मूर्तेस्तत्र भावात् । सर्वगतत्वादात्मनस्तदभाव इति चेन्न शरीरपरिमाणानुविधायिनस्तस्य प्रसाधनात् । रूप का अर्थ मूर्ति है, इस प्रकार कोई एक विद्वान् कह रहे हैं । इसपर हम जैन पूंछते है कि उन विद्वानों के यहां क्या अध्यापक द्रव्योंके परिमाणको मूर्ति माना गया है ! अथवा स्पर्श आदिक गुण ही मूर्ति हैं ? यह मन्तव्य होगा ? बताओ । पहिला पक्ष ग्रहण करनेपर तो जीवद्रव्यको रूपीपनेका प्रसंग होगा। क्योंकि अव्यापक द्रव्यका परिमाणस्वरूप मूर्तिका उस जीव द्रव्यमें सद्भाव पाया जाता है । यदि वैशेषिक या नैयायिक यहां यों कहें कि सर्वत्र व्यापक 1 होनेके कारण आत्मा द्रव्यके उस अव्यापक द्रव्यपरिमाणस्वरूप मूर्तिका अभाव है । अर्थात् सर्वगत अमूर्त है। आचार्य कहते हैं कि सो यह तो नहीं कहना। क्योंकि उस आत्माकी शरीर के परिमाणको अनुविधान करनेवालेपन की प्रमाणोंसे सिद्धि की जा चुकी है। अर्थात् - प्रत्येक जीवका आत्मा उसके शरीर बराबर होता हुआ अव्यापक द्रव्य है । अतः पहिले मूर्तिके लक्षणकी आत्मद्रव्यमें अतिव्याप्ति हो जाती है । स्पर्शादिमूर्तिरित्यस्मिंस्तु पक्षे रूपं पुद्गलसामान्यगुणस्तेन स्पर्शादिरुपलक्ष्यते इति तद्योगादद्रव्याणि रूपाणि मूर्तिमन्ति कथितानि भवन्त्येव तथेह द्रव्येष्व सर्व पर्यायेषु इति निबन्ध इति चानुवर्तते । तेनेदमुकं भवति मूर्तिमत्सु द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु विषयेषु अवधेर्निबन्ध इति । हां, द्वितीय कल्पना अनुसार स्पर्श आदिक गुण मूर्ति हैं। इस प्रकारके पक्षका ग्रहण करनेपर तो अभीष्ट अर्थ सिद्ध हो जाता है। पुद्गल द्रव्यका सामान्य गुणरूप है । उस रूप करके स्पर्श, रस आदि गुणोंका उपलक्षण कर लिया जाता है । इस कारण उस रूपके योगसे रूपवाली द्रव्यें मत्वर्थीय प्रत्ययद्वारा मूर्तिवालीं कह दी जाती हैं। तिसी प्रकार यहां पूर्व सूत्रोंसे द्रव्येषु, असर्वपर्यायेषु, विषयेषु ये शब्द और निबन्ध इस प्रकार चार शब्दोंकी अनुवृत्ति कर ली जाती है। तिस कारण इन -शब्दोंद्वारा यह वाक्यार्थ बोध' कह दिया गया हो जाता है कि मूर्तिमान् द्रव्य और कतिपय पर्याय स्वरूप विषयोंमें अवधिज्ञानका नियम हो रहा है । अर्थात् मूर्तिमान् द्रव्यों और उनकी थोडीसी पर्यायोंमें अवधिज्ञानका विषय नियत हो रहा है । इस प्रकार सूत्रका अर्थ समाप्त हुआ । कुत एवं नान्यथेत्याह । .
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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