________________
तत्वार्यचिन्तामणिः
१४७
प्रमेयको जाननेके लिये स्वयं वही ज्ञान तो समर्थ नहीं है ।' अन्य ज्ञानोंकी कल्पना करते करते उसी प्रकार नैयायिकों के यहां अनवस्था दोष आता है। कोई अन्तर नहीं है ।
अर्थापत्तिपरिच्छेद्यं परोक्षं ज्ञानमादृताः ।
सर्वं येते ऽप्यनेनोक्ता स्वाज्ञातासिद्धहेतवः ॥ ३९ ॥
मीमांसक जन प्रत्यक्ष हो रही ज्ञातता करके करणमानको अर्थापत्ति द्वारा जानते हैं । मीमांसकों के यहां करण आत्मक प्रमाण ज्ञान परोक्ष सादर माना गया है । अतः अर्थापत्ति द्वारा जानने योग्य परोक्ष ज्ञानका जो आदर किये हुये बैठे हैं, वे मीमांसक भी इस उक्त कथन करके दोष युक्तका प्रतिपादन करनेवाले कह दिये गये हैं । उन नैयायिक और मीमांसकोंके द्वारा ज्ञानको जानने के लिये दिये गये हेतु तो स्वयं उनके ही द्वारा ज्ञात नहीं हैं। मका प्रतिवादीको क्या ज्ञात होंगें ? अतः परिच्छेद्यत्व या ज्ञातता आदिक हेतु अज्ञातासिद्ध हेत्वाभास हैं ।
प्रत्यक्षं तु फलज्ञानमात्मानं वा स्वसंविदम् ।
प्रायया करणज्ञानं व्यर्थं तेषां निवेदितं ॥ ४० ॥
जिन प्रभाकर मीमांसकोंके यहां फलज्ञान तो प्रत्यक्ष माना गया है, और प्रमितिके करण होरहे प्रमाणज्ञानको परोक्ष मानलिया है, अथवा जिन भट्ट मीमांसकों के यहां प्रमिति कर्त्ता आत्माका तो स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष हो जाना इष्ट किया है, और प्रमाणज्ञानको परोक्ष माना है, उन मीमांसकोंके यहां प्रमाके पूर्व में करणज्ञानका व्यर्थ ही निवेदन किया गया है। क्योंकि परोक्ष करणज्ञान के बिना भी अर्थका प्रत्यक्ष हो जाना प्रत्यक्ष हो रहे आत्मा या फळज्ञानसे बन जाता है । यदि करण के बिना क्रियाकी निष्पत्ति नहीं होती है, अतः परोक्ष भी करणज्ञानकी मध्यमें कल्पना करोगे तब तो आत्मा या फलज्ञानको प्रत्यक्ष करनेमें भी न्यारा करणज्ञान मानना पडेगा । किन्तु मीमांसकोंने करणके बिना भी उक्त प्रत्यक्ष होते हुये मान लिये हैं । अब अर्थकी प्रमिति करनेमें मी परोक्ष करणज्ञान मानना व्यर्थ ही पडता है । अतः परोक्षज्ञानकी सिद्धि करने में दिये गये हेतु मी अज्ञातासिद्ध हेत्वाभास हैं ।
प्रधानपरिणामत्वादचेतनमितीरितम् ।
ज्ञानं यैस्ते कथं न स्युरज्ञातासिद्धहेतवः ॥ ४१ ॥
कपिक मत अनुपायियोंने आत्माका स्वभाव चैतन्य माना है और बुद्धिको जड प्रकृतिका विवर्त इष्ट किया है, ऐसी दशा में सांख्योंने अनुमान " ज्ञानमचेतनं प्रधानपरिणामित्वात् घटवत् कहा है। अर्थात् ज्ञान पक्ष ) अचेतन है ( साध्य ) सत्वगुण रजोगुण और तमोगुणकी
99