________________
तत्वार्यचिन्तामणिः
प्राप्त्या यत्प्रत्यवस्थानं जातिः प्राप्तिसमैव सा । अप्राप्त्या पुनरप्राप्तिसमा सत्साधनेरणे ॥ ३५३ ॥ यथायं साधयेद्धेतुः साध्यप्राप्त्यान्यथापि वा। प्राप्त्या चेयुगपद्भावात्साध्यसाधनधर्मयोः ॥ ३५४ ॥ प्राप्तयोः कथमेकस्य हेतुतान्यस्य साध्यता। युक्तेति प्रत्यवस्थानं प्राप्त्या तावदुदाहृतम् ॥ ३५५ ॥ अप्राप्य साधयेत्साध्यं हेतुश्चेत्सर्वसाधनः । सोस्तु दीपो हि नाप्राप्तपदार्थस्य प्रकाशकः ॥ ३५६ ॥ इत्यप्राप्त्यावबोद्धव्यं प्रत्यवस्थानिदर्शनम् । तावेतो दूषणाभासौ निषेधस्यैवमत्ययात् ॥ ३५७ ॥ प्राप्तस्यापि दंडादेः कुंभसाधकतेक्ष्यते । तथाभिचारमंत्रस्याप्राप्तस्यासातकारिता ॥ ३५८ ॥
न्यायसूत्र और भाग्यके अनुसार दो जातियोंका लक्षण इस प्रकार है कि हेतुकी साध्य के साथ प्राप्ति करके जो प्रत्यवस्थान दिया जाता है,वह प्राप्तिसमा ही जाति है । और अप्राप्ति करके जो फिर प्रत्यवस्थान दिया जाता है, वह अप्राप्तिसमा जाति है। जैसे कि पर्वतो वहिमान धूमात्,शद्बो अनित्यः कृतकस्वात, इत्यादिक समीचीन हेतुका वादी द्वारा कथन किये जा चुकनेपर प्रतिवादी दोष उठाता है कि यह हेतु क्या साध्यको प्राप्त होकर साध्यकी सिद्धि करावेगा ! अथवा क्या दूसरे प्रकारसे भी ! यानी साध्यको नहीं प्राप्त होकर हेतु साध्यकी सिद्धि करा देगा ! बताओ । प्रथम पक्ष अनुसार साध्यके साथ संबन्ध हो जाना रूप प्राप्तिसे यदि साध्यकी सिद्धि मानी जायगी तब तो साध्य और हेतु इन दोनों धर्माका एक काळ एक साथ ही सद्भाव हो जानेसे उनमें हेतुपन और साध्यपनकी कोई नियामक कोई विशेषता नहीं ठहर पाती है। साध्य और हेतु जब दोनों ही एक स्थानमें प्राप्त हो रहे है, तो गायके डेरे और सूधे सींग समान भला उनमेंसे एकको हेतुपना और दूसरेको साध्यपना कैसे युक्त हो सकता है। विनिगमनाविरहसे दोनों ही हेतु बन जायंगे या दोनों धर्म साध्य बन बैठेंगे । झगडा मच जायगा। इस प्रकार प्रतिवादी द्वारा प्राप्ति करके दिये गये पहिले प्रत्यवस्थानका उदाहरण यहांतक दिया जा चुका। अब द्वितीय विकल्प अनुसार अप्राप्तिसमाका उदाहरण यो समझिये कि वादीका हेतु