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________________ ४८४ तत्वार्थ लोकवार्तिके mamimaasuman.rainian.anuaHamashanamratani......nieee... वचनासंभवात्तावता भवता न दृष्टान्तलक्षणं व्यज्ञायि । दृष्टान्तो हि नाम दर्शनयोर्विहितयोविषयः । तथा च साध्यमनुपपन्नं । अथ दर्शनं विहन्यते तर्हि नासौ दृष्टान्तो लक्षणाभावादिति । गौतमसूत्र है कि " साध्यातिदेशाच्च दृष्टान्तोपपत्तेः " साध्य के अतिदेश मात्रसे दृष्टान्तका दृष्टान्तपन बन जाता है । उपमान प्रमाणसे जानने योग्य पदार्थकी ज्ञप्ति करनेमें अतिदेशवाक्य साधक हो जाता है । जैसे कि जैसी मूंग होती है, वैसी मुद्गपर्णी होती है । और मुद्गपणीके सदृश हो रही औषधि विषविकारको नष्ट कर देती है । इस प्रकार आप्तवाक्य रूप अतिदेशद्वारा अवधारण कर कहीं वनमें उपमानसे संज्ञासंज्ञीके सम्बन्धको समझता हुआ उस औषधिको चिकित्साके लिये ले आता है अथवा अधिक लम्बी ग्रीवावाला पशु ऊंट होता है, बहुत बडी नासिकासे युक्त हो रहा पशु हाथी कहा जाता है, ऐसे वाक्योंको अतिदेशवाक्य कहते हैं । उनका स्मरण रखना पडता है । प्रकरण प्राप्त सूत्रमें अतिदेश शब्द है, सामान्यरूपसे साध्यका अतिदेश कर देना दृष्टान्तमें पर्याप्त है । एतावता दृष्टान्तका साध्यपना तो असम्भव है । इस सूत्रका भाष्य यों है कि जिस पदार्थ लौकिक और परीक्षक पुरुषों की बुद्धिका अभेद यानी साम्य दिखलाया जाता है, यह दृष्टान्त है। उससे विपरीत नहीं हो रहा अर्थ तो समझानेके लिये साध्यमें अतिदेश कर दिया जाता है और ऐसा होनेपर साध्यके अतिदेशसे किसी एक व्यक्तिका दृष्टान्तपना बन चुकनेपर पुनः उस दृष्टान्तको साध्यपना नहीं बन सकता है। इसी बातको तिस प्रकार उद्योतकर पण्डित भी यों विशद कर कहते हैं कि जो आप प्रतिवादी साध्यसमामें दृष्टान्तको ही साध्य कह रहे हैं, यह आपका कथन करना असम्भव है । तिस प्रकारके कथनसे हमको प्रतीत होता है कि आपने दृष्टान्तका लक्षण ही नहीं समझ पाया है । देखिये, दृष्टान्त नाम उसका निश्चय किया गया है जो कि लौकिक या परीक्षक पुरुषों करके विधान किये गये प्रत्यक्ष आत्मक दर्शनोंका विषय होय । " दृष्टः अन्तो यत्र स दृष्टान्तः ।" जब कि दर्शनों द्वारा वादी, प्रतिवादी, सभ्य पुरुषों करके दृष्टान्त प्रत्यक्षित हो गया है, तो तिस प्रकार उसको साध्य कोटिमें लाना असिद्ध है। हां, अब यदि दृष्टान्त बनाने के लिये उसके पेटमें घुसे हुये दर्शनका विघात किया जायगा अर्थात्-तुम यों कह दो कि वादीने भले ही वहां धर्म देख लिये होय किन्तु मुझ प्रतिवादीने तो उसमें धर्मोका दर्शन नहीं किया है, तब तो हम उद्योतकरको कहना पडेगा कि वह दृष्टान्त ही नहीं बन सका। क्योंकि दृष्टान्तका वहां लक्षण घटित ही नहीं होता है । वादी, प्रतिवादी, दोनोंके दर्शनोंका विषयभूत व्यक्ति तो दृष्टान्त हो सकता है । अकेले वादी द्वारा देखे गये धर्मवान् पदार्थको दृष्टान्त नहीं माना जा सकता है । अतः प्रतिवादीने उसको दृष्टान्त मान लिया यह उसकी भूल है। यहांतक दूषणामासपनेसे सहित हो रही उत्कर्षसमा आदि छह जातियोंका विचार कर दिया गया है।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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