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तत्त्वार्यशोकवातिके
हानि, प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञान्तर इनको योडाप्ता अन्तर हो जानेसे ही न्यारा निग्रहस्थान मान लिया गया है, तो प्रतिज्ञाविरोधके समान हेतुविरोध, दृष्टान्तविरोधको, स्वतंत्र निग्रहस्थान मान लेना चाहिये ।
निग्रहस्थानसंख्यानविघातकृदयं ततः। यथोक्तनिग्रहस्थानेष्वंतर्भावविरोधतः ॥ १५९ ।।
और तैसा होने से यह कई निग्रस्थानोंका बढ़ जाना तुम्हारे अभीष्ट हो रहे निग्रहस्थानोंकी नियत संख्याका विधात करनेवाला होगा। क्योंकि नैयायिकोंकी आम्नाय अनुसार कहे गये निग्रहस्थानोंमें अन्तर्भाव हो जानेका तो विरोध है । अथवा हेतुविरोध, दृष्टान्तविरोध, आदिका यदि प्रतिज्ञाविरोधमें गर्म किया जायगा तो प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञान्तर, प्रतिज्ञासंन्यास, इनका भी प्रतिज्ञाहानिमें अन्तर्भाव कर लेनेसे कोई विरोध नहीं पड़ता है।
प्रत्यक्षादिप्रमाणेन प्रतिज्ञाबाधनं पुनः। प्रतिज्ञाहानिरायाता प्रकारांतरतः स्फुटम् ॥ १६० ॥ निदर्शनादिबाधा च निग्रहांतरमेव ते ।
प्रतिज्ञानश्रुतेस्तत्राभावात्तद्वाधनात्ययात् ॥ १६१ ॥
यदि फिर प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंकरके प्रतिज्ञाकी बाधाको प्रतिज्ञाविरोध कहा जायगा, तब तो यह सर्वथा स्पष्टरूपेण एक दूसरे प्रकारसे प्रतिज्ञाहानि ही कही गयी आयी । प्रतिज्ञा विरोधको न्यारा दूसरे निग्रहस्थान माननेपर तो दृष्टान्त विरोध, हेतुविरोध, उपनयविरोध, निगमन विरोध, प्रत्यक्षविरोध, अनुमानविरोध, आदिक भी तुम्हारे यहां न्यारे न्यारे ही निग्रहस्थान मानने पडेंगे । प्रतिकूल ज्ञानके श्रवणका वहां अभाव है । अतः उन दृष्टान्तविरोध आदि निग्रहस्थानोंके अवसरपर उनके बाधा प्राप्त होनेके अभाव है।
पदप्यवादि तेन परपक्षसिद्धेन गोत्वादिनानैकांतिकचोदनाविरुद्धति यः परपक्षसिदेन गोत्वादिना व्यभिचारयति तद्विरुद्धमुत्रं वेदितव्यम् । अनित्यः शद्धः ऐंद्रियकत्वात् घटवदिति केनचिद्रौद्धं प्रयुक्तं, नैयायिकसिद्धन गोत्वादिना सामान्यन हेतोरनैकांतिकत्वचोदना हि विरुद्धमुत्सरं सौगतस्यानिष्टसिद्धेरिति । तदपि न विचाराईमित्याह ।
और भी उस उद्योतकरने जो यह कहा था कि दूसरे नैयायिक या वैशेषिकोंके पक्षमें प्रसिद्ध हो रहे गोत्व, घटाव, अश्वत्व, आदि नित्य जातियों करके व्यभिचारी हेत्वाभासपनेका कुचोद्य उठाना