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________________ ५५२ तस्वार्यश्लोकवार्तिके नास्तित्वरूप माननेपर जो दोष अस्तित्वाभाव स्वरूप आता, वे एकान्तवादियोंके ऊपर आनेवाले दोष अस्तित्वनास्तित्वात्मक अनेकान्तको माननेवाले जैनके यहां भी प्राप्त हो जाते हैं । यह उभय दोष हुआ। तथा जिस स्वभावसे अर्थका अस्तित्व धर्म व्यवस्थित किग है। उस होसे अस्तित्व और नास्तित्व दोनों मान लिये जाय अथवा जिस स्वभावसे नास्तिस्व माना गया है, उससे दोनों धर्म नियत कर लिये जाय, इस प्रकार सम्पूर्ण स्वभावोंकी युगपत् प्राप्ति हो जाना संकर है । तथा जिस अवच्छेदक स्वभावसे अस्तित्व माना गया है, उससे नास्तित्व क्यों न बन बैठे और जिस स्वभावसे नास्तित्व नियत किया है, उससे अस्तित्व व्यवस्थित हो जाय । इस प्रकार परस्परमें व्यवस्थापक धर्मोका विषयगमन करनेसे अनेकान्तपक्षमें व्यतिकर दोष आता है । तथा जिस स्वरूपसे सत्व है, और जिस स्वरूपसे असत्व है, उन धर्मोमें भी पुनः कथंचित् सत्व, असत्वके स्वीकार करत संते भी विश्राम नहीं मिलेगा। उत्तर उत्तर धोंमें अनेकान्तकी कल्पना बढती बढती चली जानेसे अनवस्था दोष हो जायगा । तथा उक्त दोषोंके पड जानेसे उपलम्भ नहीं होनेके कारण अनेकान्त की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती है। जिसकी अप्रतिपत्ति है, उसका अभाव मान लिया जाता है। आचार्य कहते हैं कि सर्वथा अस्तित्व या नास्तित्व अथवा भेद या अभेद इत्यादि धर्मोके मानने वाले एकान्तवादियों के यहां ये दोष अवश्य आते हैं । किन्तु एक धीमें स्यात्कार द्वारा कथंचित् अस्तित्व, नास्तित्व आदि अनेक धर्मोके माननेपर कोई दोष नहीं आ पाता है। देखिये ! कुछ अंधकार कुछ प्रकाश होनेके अवसरपर ऊर्ध्वतामात्र सामान्य धर्मको अवलम्ब लेकर विशेष धर्मकी अनुपलब्धि होनेसे स्थाणु या पुरुष का संशय उपज जाता है। किन्तु अनेकान्तवादमें तो विशेष धर्मोकी उपलब्धि हो रही है । स्वचतुष्टयसे वस्तुमें अस्तित्व और परचतुष्टयसे नास्तित्व ये दोनों धर्म एकत्र स्पष्ट दीख रहे हैं। वस्तुमें अस्तित्व ही माना जाय और नास्तिकत्व नहीं माना जाय तो वस्तु सर्व बात्मक हो जायगी तथा वस्तु नास्तित्व ही माना जाय अस्तित्व नहीं माना जाय तो लाम नहीं करती हुयी वस्तु खरविषाणके समान शून्य बन बैठेगी। नैयायिकोंने भी पृथिवीस्व नामक सामान्य विशेषमें सत्त्व या द्रव्यस्वकी अपेक्षा विशेषपना और घटत्व, पटत्वकी, अपेक्षा सामान्यपना स्वीकार किया है। अतः प्रतीयमान अनेकान्तमें चलितप्रतिपत्ति नहीं होनेसे संशय दोष नहीं आता है। निर्णीत हो चुके में संशय उठाना युक्त नहीं है । अविरुद्ध अनेक कोटियोंको स्पर्शनेवाला ज्ञान संशय नहीं होता है। जैसे आत्मा बानवान् है, सुखी है इसी प्रकार सामान्य विशेष यात्मक वस्तुओंकी प्रतीति हो रही होनेसे संशय दोष बालाग्र भी प्राप्त नहीं होता है। वस्तुका अनेक धर्मों के साथ तदात्मकपना माननेपर दूसरा विरोध दोष भी नहीं आपाता है। विरोध तो अनुपलधिसे साधा जाता है । उष्ण स्पर्शबान्के आजानेपर शीतस्पर्शका अनुपरम्भ हो जाता है। अतः शीतस्पर्श और उग्णस्पर्शका विरोध गढ लिया जाता है । किन्तु यहाँ अनेकान्तात्मक वस्तुमें जब विरुद्ध सदश दीख रहे अस्तित्व नास्तित्व, भेद अभेद, आदि धर्मोका युगपन उपसम्म हो रहा,
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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