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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ऐसी दशामें वयचातकभाव, सहामवस्थान ये दो विरोध कैसे भी नहीं पाते हैं। परस्पर परिहाराष. स्थिति स्वरूप विरोध तो अनेकात्मक वस्तुको ही अधिकतया पुष्ट करता है । एक धर्मीमें अनेक धर्मोके साथ रहनेपर ही परस्परमें एक दूसरेका परिहार करते हुये विरोधपना रहना रक्षित हो पाता है। जो ही पहिला उत्तम संहनन शुक्लपान द्वारा मोक्षका हेतु है, वही तीव्र शैद्रध्यान द्वारा सप्तम नरकका कारण बन बैठता है । बौदोंने शापक हेतुमें पक्षवृत्सिव, सपक्षपत्तित्व, विपक्षावृत्तित्व ये तीनों धर्म युगपत् स्वीकार किये हैं। पर्वतो वहिमान् धूमात् यहां नैयायिकोंने धूम हेतुमें अन्य. यव्याप्ति, व्यतिरेकन्याप्ति ये दोनों प्रतिबन्ध युगपत् अभीष्ट किये हैं । विरोधक पदार्थकी ओरसे विरोध्य अर्थमें प्राप्त हो रहा विरोध तो सुलमतासे अनेकान्त मतको पुष्ट कर देता है। तीसरा वैयधिकरण्य दोष भी अनेकान्तसिद्धिका प्रतिषेधक नहीं है। जब कि बाधारहित ज्ञानमें भेद, ममेद, अथवा सत्व, असत्त्व, धर्मोकी एक बाधारमें वृत्तिपने करके प्रतीति हो रही है । अतः विभिन्न धर्मोका अधिकरण भी विभिन्न होगा यह वैयधिकरण्य दोष अनेकान्तमें लागू नहीं होता है। चेतन मात्मामें रूपका रहना जड पुद्ग में बानका ठहरना माननेपर रूप और जानका वैयधिकरण्य दोष समुचित है। किन्तु एक अग्निमें दाहकत्व, पाचकाव, शोषकपन, स्फोटकत्व (चर्मपर फळक उठा देना ) ये अनेक धर्म युगपत् एकाश्रयमें प्रतीत हो रहे हैं। अतः वैयधिकरण्य दोषकी अनेकारतमें सम्भावना नहीं है । चौथा उभयदोष भी प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि परस्पर एक दूसरेकी नहीं अपेक्षा रखनेवाळे भेद, अभेद, अथवा अस्तित्व, नास्तिस्य, दोनों धर्मोका सतुआ या खिचडीके समान एकपना हम जैन स्वीकार नहीं करते हैं। किन्तु दही गुडको मिलाकर मये उपजे तीसरे स्वाद के समान या हल्दी चूनाको मिलाकर हुये तीसरे रंगके समान अनेकान्त वात्मक बस्तुकी जाति न्यारी है। जैनोंके यहां एक धीमें ठहरे हुये अनेक धर्म परस्पर सापेक्ष माने गये है । नीली, हरी, लाल, पीली, अनेक कान्तियोंको धारनेवाले मेचक रनमें कोई उभय दोषकी सम्भावना नहीं है । बढिया चोर कभी परस्त्रीको पुरी दृष्टिसे नहीं देखता है। अच्छा डाकू (गुरुका सिखाया हुआ प्रशंशनीय डॉक) माता, बहिन, कहकर नियोस वस्त्राभूषण छीन लेता है। किन्तु उनके साथ रागचेष्ठा नहीं करता है। तया परदारसेवी (लुच्चा ) पुरुष परस्त्रियों के साथ काम चेष्टा भले ही करे,किन्तु उनके गहनों,कपडोंका अपहरण नहीं करता है। भले ही यह भूका मर जायगा। किन्तु दान देने योग्य नियोंके दम्पका अपहरण नहीं करता है। हां, कोई तुच्छ चोर या जघन्य ज्यभिचारी भले ही दोनों कार्योको करता हुआ उमय दोषका भागी हो जाय । किन्तु जो प्रती मनुष्य है, षा परदारसेवम या चोरी उभय ( दोषों ) से रहित है । इसी प्रकार अनेक धर्मात्मक वस्तु उभयदोषरहित तिस प्रकार प्रतीत हो रही हैं। बौद्धों द्वारा माने गये एक चित्रज्ञानमें मील, पीत बादि अनेक आकार उभयरूप नहीं होते हुये सुखपूर्वक विश्राम ले रहे हैं। पांचयां दोष संकर भी अनेकान्तारमक वस्तुमें नहीं लगता है। गर्दभ गौर घोडीके संयोगसे उत्पन्न हुये 70
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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