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तत्वार्यकोकवार्तिके
तथा सत्तामात्र विधि ही विधिलिङ् बाक्यका अर्थ है । यह ब्रम अद्वैतवादियोंका एकान्त में। विपर्यय ज्ञान है। क्योंकि उस विधिका विचार किया जानेपर उसकी सिद्धि होनेका अयोग है। दखिये, यह विधिको विषय करनेवाला वाक्य क्या गौणपनेसे विधिको जानता हुआ प्रमाण समक्षा जायगा ! अथवा प्रधानरूपसे विधिको प्रतिपादन करता हुआ विधिमें प्रमाण माना जावेगा ! बतायो । प्रथमपक्षके अनुसार यदि गौणरूपसे विधिको कह रहा वाक्य प्रमाण बन जायगा, तब तो ब्रह्म अद्वैतवादियोंके यह" स्वर्गकी अभिलाषा रखनेवाला पुरुष अग्निहोत्र पूजनद्वारा हवन करे" इत्यादिक कर्मकाण्डके प्रतिपादक वाक्योंको भी प्रमाणपना हो जाओ। क्योंकि कर्मकाण्ड वाक्योंका अर्थ भी गौणरूपसे विधिको विषय करता हुआ वर्त रहा है। उन कर्मकाण्ड वाक्यों में भह मतका अनुसरण करनेवाले मीमांसकोंने मावना अर्थकी प्रधानता स्वीकार की है । और प्रमाकर मत अनुयायियोंने उन वाक्योंमें प्रधानरूपसे नियोगको विषय करनापन अंगीकृत किया है। वे भावना
और नियोग दोनों असर पदार्थको विषय करते हुये नहीं प्रवर्तते हैं । अथवा स्वकर्तव्यद्वारा असत् पदार्थको प्रतीति कराते हुए नहीं जाने जा रहे हैं। सभी प्रकारोंसे असत् हो रहे पदार्थोकी ( में ) प्रवृत्ति अथवा प्रतीति होना माना जावेगा, तब तो शशश्रृङ्ग, गजविषाण, आदिकी भी उन प्रवृत्तियां या प्रतीतियां हो जाने का प्रसंग हो जावेगा। इससे एक बात यह भी जब जाती है कि उन भावना और नियोगको सहपपने करके विधि के साथ अविनाभावीपना सिद्ध है। अतः प्रसिद्ध हो जाता है कि कर्मकाण्ड प्रतिपादक वाक्य गौणरूपसे सन्माप्रविधिको विषय करते हैं । इस कारण मीमांसकोंके ज्योतिष्टोम, अग्निष्टोम, विश्वजित् , अश्वमेध आदि वाक्योंकी प्रमाणताके प्रसंगका विवाद नहीं होना चाहिये । जिससे कि कर्मकाण्ड वाक्योंको पारमार्थिकपना नहीं होवे । अर्थात्-गौणरूपसे विधिको कहनेवाले कर्मकाण्ड वाक्य भी अद्वैतवादियोंको प्रमाण मानने पडेंगे।
__प्रधानभावेन विषिविषयं वेदवाक्यं प्रपाणमिति चायुक्तं, विधेः सत्यत्वे द्वैतावतारात् । तदसत्यत्वे प्राधान्यायोगात् । तथाहि-यो योऽसत्यः स स न प्रधानभावमनुभ. पति, थथा सदविद्याविलासा तथा चासत्यो विधिरिति न प्रधामभावेन तद्विषयतोपपत्तिः ।
द्वितीयपक्ष के अनुसार ब्रह्म अद्वैतवादी यदि यों कहें कि प्रधानरूपसे विधिको विषय करने वाळे उपनिषद् वाक्य प्रमाण हैं । आचार्य कहते हैं कि यह उनका कहना पुक्तियोंसे रहित है। क्योंकि वाक्य के अर्थ विधिको वास्तविक रूपसे सत्य माननेपर तो द्वैतवादका अवतार होता है । एक विधि और दूसरा ब्रह्म ये दो पदार्थ मान लिये गये हैं । यदि उस श्रोतव्य मन्तन्य आदिको विधिको अवस्तु भूत असत्य मानोगे तब तो विधिको प्रधानपना घटित नहीं होता है । उसीको अनुमान वाक्यद्वारा स्पष्ट फर हम दिखला देते हैं कि जो जो असत्य होता है, यह बह प्रधामपन का अनुभव नहीं करता है। जैसे कि उन ब्रह्म अद्वैतवादियों के यहां अविधाका विलास असत्य होता