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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
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अवधिज्ञानका प्ररूपण कर अब अवसर संगति अनुसार क्रमप्राप्त मनःपर्ययज्ञानका प्रतिपादन करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराज अप्रिम सूत्रस्वरूप मुक्ताफलको स्वकीय मुख- सम्पुटसे निकालकर प्रकाशित करते हैं।
ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः ॥ २३ ॥ ऋजुमति और विपुलमति इस प्रकार दो भेदवाला मनःपर्ययज्ञान होता है। सरलतापूर्वक अथवा मन, वचन, कायके द्वारा किये गये चिंतित अर्थाका प्रत्यक्ष करनेवाला ज्ञान ऋजुमति है। तथा सरल और वक्र अथवा सब प्रकारके त्रियोग द्वारा किये गये या नहीं किये गये चिंतित, अचिंतित अर्धचिंतित अर्थाका प्रत्यक्ष करनेवाला बान विपुलमति मनःपर्यय है ।
नन्विह बहिरंगकारणस्य भेदस्य च ज्ञानानां प्रस्तुतत्वान्नेदं वक्तव्यं ज्ञानभेदकारणा प्रतिपादकत्वादित्यारेकायामाह।
शिष्यकी शंका है कि यहां प्रकरणमें ज्ञानोंके बहिरंग कारण और भेदोंके निरूपण करनेका प्रस्ताव चला आ रहा है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अधिज्ञानमें इसी प्रकारके प्रस्ताव अनुसार निरूपण हो भी चुका है। अतः मनःपर्यय ज्ञानके स्वरूपका प्रतिपादक यह सूत्र भला क्यों कहा जा रहा है ! ज्ञानके भेद और बहिरंग कारणों का प्रतिपादक तो यह सूत्र नहीं है । अतः यहाँ प्रकरणमें यह सूत्र नहीं कहना चाहिये, इस प्रकार आशंका होनेपर श्री विद्यानन्दस्वामी स्पष्ट समाधान कहते हैं । सो अनन्यमनस्क होकर सुनो।
मनःपर्ययविज्ञानभेदकारणसिद्धये । प्राहवित्यादिकं सूत्रं स्वरूपस्य विनिश्चयात् ॥ १॥
सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजने यह " ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः " सूत्र यहाँ ज्ञानके स्वरूपका निश्चय करनेके लिए नहीं कहा है । मनःपर्यय ज्ञानके स्वरूपका विशेष निश्चय तो " मतिश्रुतावधिःमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् " इस सूत्रमें कहे गये मनःपर्यय शब्दकी निरुक्तिसे. भले प्रकार करा दिया गया है। किंतु यहां मनःपर्ययज्ञानके भेद और बहिरंगकारणोंकी प्रसिद्धि करानेके लिये श्री उमास्वामी महाराज " ऋविपुल " इत्यादिक सूत्रको बहुत अच्छा कह रहे हैं ।
न हि मनःपर्ययज्ञानस्वरूपस्य निश्चयार्थमिदं सूत्रमुच्यते यतोऽप्रस्तुतार्थ स्यात् । तस्य मत्यादिसूत्रे निरुक्त्यैव निश्चयात् । किं तर्हि । प्रकृतस्य बहिरंगकारणस्य भेदस्य प्रसिद्धये समारभते ।