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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २३ इसकी टीका यों हैं कि मनःपर्ययज्ञानके स्वरूपका निश्चय करानेके लिए यह सूत्र नहीं कहा जा रहा है, जिससे कि प्रकरणके प्रस्तावमें प्राप्त हो रहे अर्थको प्रतिपादन करनेवाला यह सूत्र नहीं हो सके । अर्थात्-यह सूत्र प्रस्तावप्राप्त प्रकरणके अनुसार ही है । उस मनःपर्ययके स्वरूपका निश्चय तो “ मतिः स्मृतिः " आदि सूत्रमें निरुक्ति करके ही कह दिया जा चुका है। मनःपर्यय बानावरण कर्मके क्षयोपशम आदिक अन्तरंग, बहिरंगोंको निमित्तकारण पाकर परकीय मनोगत अर्थको चारों ओर से आलम्बनकर आत्माके जो ज्ञान होता है, यह मनःपर्ययका स्वरूप है। तो फिर यहां कोई पूछे कि सूत्रकारने यह सूत्र किस लिये बनाया ! इसका उत्तर यह है कि प्रकणमें निरूपण किये जा रहे बहिरंगकारण और भेदकी प्रसिद्धि कराने के लिये यह सूत्र अच्छे ढंगसे भारम्भा जा रहा है। ऋज्वी मतिर्यस्य स ऋजुपतिः । विपुला मतिर्यस्य स विपुलमतिः । ऋजुमतिश्च विपुलमतिश्च ऋजुविपुलमती । एकस्य मतिशदस्य गम्यमानत्वाल्लोप इति व्याख्याने का सा ऋज्वी विपुला च मतिः किंपकारा च मतिशवेन चान्यपदार्थानां वृत्तौ कोऽन्यपदार्थ इत्याह । जिसकी बुद्धि ऋजु सरल बनायी गयी है वह मनःपर्ययज्ञान ऋजुमति है, और जिसकी बुद्धि कुटिल भी बहुतसे अर्थोको जाननेवाली है, वह विपुलमति है । ऋजुमति शब्द और विपुल. मतिशद्ध दो का इतर इतर योग करनेपर " ऋजुविपुलमति " इस प्रकार द्वन्द्व समासमें पद बन जाता है । दो मति शब्दों से एक मति शब्द का अर्थ विना बोले ही जान लिया जाता है । अतः समास नियम अनुसार एक मति शब्दका लोप हो जाता है। इस प्रकार सूत्रके उद्देश्यदलका व्याख्यान करनेपर प्रश्न हो सकता है कि वे ऋजु और विपुल नामकी बुद्धियां कौनसी हैं ? और कितने भेदवाली हैं ? तथा मति शब्द के साथ ऋजु विगुलमति शद्वोंकी अन्य पदार्थोको प्रधान करने वाली बहुव्रीहि नामक समास वृत्ति हो जानेपर बताओ कि वह अन्य पदार्थ कौन हैं ! जो कि ऋजुमति और विपुलमतिका वाध्य पडेगा । इस प्रकार कई जिज्ञासायें खडी करनेपर श्रीविद्यानंद आचार्य यथार्थ उत्तर कहते हैं। निवर्तितशरीरादिकृतस्यार्थस्य वेदनात् । ऋज्वी निर्वर्तिता त्रेधा प्रगुणा च प्रकीर्तिता ॥२॥ ऋजु शब्दका अर्ध बनाया गया और सरल यों दोनों प्रकार अच्छा कहा गया है। सरलता पूर्वक काय, वचन, मन, द्वारा किये गये परकीय मनोगत अर्थका सम्वेदन करनेसे ऋजुमति तीन प्रकारकी कही गई है । अर्थात् -अपने या दूसरेके द्वारा सरकतापूर्वक शरीरसे किये गये, वचन
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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