SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४२ तत्वार्थशोकवार्तिके यत्र संभवतोर्थस्यातिसामान्यस्य योगतः। असद्भूतपदार्थस्य कल्पना क्रियते बलात् ॥ २९० ॥ तत्सामान्यछलं प्राहुः सामान्यविनिबंधनं । विद्याचरणसंपचिाह्मणे संभवेदिति ॥ २९१ ॥ केनाप्युक्ते यथैवं सा व्रात्येपि ब्राह्मणे न किम् । ब्राह्मणत्वस्य सद्भावाद्भवेदित्यपि भाषणम् ॥ २९२ ॥ सदेतन छलं युक्तं सपक्षेतरदर्शनात् । तलिंगस्यान्यथा तस्य व्यभिचारोखिलोस्तु तत् ॥ २९३ ॥ जहां यथायोग्य सम्भव रहे अर्थका अतिक्रान्त हुये सामान्यके योगसे अर्थविकल्प उपपत्तिकी सामार्थ्य करके जो नहीं विद्यमान हो रहे पदार्थकी कल्पना की जाती है, नैयायिक उसको बहुत अच्छा सामान्यछल कहते हैं । जो विवक्षित अर्थको बहुत स्थानोंमें प्राप्त कर लेता है, और कहीं कहीं उस अर्थका अतिक्रमणकर जाता है, वह अतिसामान्य है, यह दूसरा सामान्यछल तो सामान्य रूपसे प्रयुक्त किये गये अर्थक विगमको कारण मानकर प्रर्वतता है । जैसे कि किसीने जिज्ञासापूर्वक आश्चर्यसहित इस प्रकार कहा कि वह ब्राह्मण है। इस कारण विद्यासम्पत्ति और आचरणसम्पत्तिसे युक्त अवश्य होना चाहिये । अर्थात्--जो ब्राह्मण (ब्रह्म वेत्तांति ब्राह्मणः ) है, वह विद्वान् और आचरणवान् होना चाहिये । यों किसीके भी द्वारा कहने पर कोई छलको हृदयमें धारता दुभा कहता है कि इस प्रकार वह विद्या, आचरण संपत्ति तो ब्राह्मण कहे जा रहे संस्कारहीन व्रात्यमें भी क्यों नहीं हो जावेगी ! क्योंकि ब्राह्मण माता पिताओंका तीन चार वर्षका लडका भी ब्राह्मण है। उसका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ नहीं है । वह ब्राह्मणका छोरा प्रात्य है, किन्तु उसके कोई व्याकरण, साहित्य, सिद्धांत, आदि विषयों का ज्ञान नहीं है । विशेष उच्च कोटिके ज्ञानको ज्ञान संपत्ति शबसे लिया जाता है । इसी प्रकार उस छोरेमें अभक्ष्यत्याग, ब्रह्मचर्य, सत्संग, इन्द्रियविजय, अहिंसाभाव, सत्यवाद, विनयसंपत्ति, संसारभीरुता, बैराग्य परिणाम आदि प्रतस्वरूप आचरण भी नहीं पाये जाते हैं । आठ वर्षके प्रथम जब छोटा भी व्रत नहीं है, तो उसमें उच्च कोटिकी पाचरण संपत्ति तो भला कहां पायी जा सकती है ! इस प्रकार अर्थविकल्पकी उपपत्तिसे असदभूत अर्यकी कल्पना कर दूषण उठानेवाला प्रतिवादी कपटी है। अतः ऐसी दशा वका वादीका जय और प्रतिवादीका पराजय करा दिया जाता है । इस प्रकार नैयायिक अपने छल प्रति पादक सूत्रका भाष्य करते हुये कथन कर रहे हैं । अब प्राचार्य कहते हैं कि वह उनके प्रन्थमें
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy