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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः प्रसिद्ध हो रहा यह नैयायिकोंका छल भी युक्त नहीं है, क्योंकि उस हेतुका सपक्ष और विपक्ष में दर्शन हो जानेसे प्रतिवादी द्वारा व्यभिचार दोष दिखलाया गया है। अन्यथा यानी विपक्षमें हेतुके दिखलानेको यदि छल प्रयोग बताया जायगा तब तो संपूर्ण व्यभिचार दोष उस छलस्त्ररूप हो जावेंगे और ऐसी दशा में ब्राह्मणत्व हेत्वाभासको कहनेवाला वादी विना मूल्य ( मुफ्त ) ही जयको लूट .केगा और ब्राह्मणत्व हेतुका ब्रात्य में व्यभिचार उठानेवाले प्रतिवादी विद्वान्को छली बनाकर पराजित कर दिया जायगा, यह तो अंधेर है । किसी विद्वान् के ऊपर छलका लांच्छन लगाना उसका भारी अपमान करना है । प्रायः विद्वान् कपट रहित होते हैं । ४४३ कविदेति तथात्येति विद्याचरणसंपदं । ब्राह्मणत्वमिति ख्यातमतिसामान्यमत्र चेत् ॥ २९४ ॥ तथैव स्पर्शवत्त्वादिश नित्यत्वसाधने । किं न स्यादतिसामान्यं सर्वथाप्यविशेषतः ॥ २९५ ॥ तन्नभस्येति नित्यत्वमत्येति च सुखादिषु ( सुखे क्वचित् ) तेनानैकातिकं युक्तं सपक्षेतरवृत्तितः ॥ २९६ ॥ यदि नैयायिक यहां यों कहें कि यहां सूत्रमें अति सामान्यका अर्थ इस प्रकार है । जो ब्राह्मणपन उद्भट विद्वत्ता और सदाचारको धारनेवाले किन्हीं विद्वानोंमें तो विद्या, आचारण, संपत्तिकों प्राप्त करा देता है । और किसी ब्राह्मणके छोरामें वह ब्राह्मणपना उस विद्या चारित्र सम्पत्तिका 1 अतिक्रमण करा देता है। यहां प्रकरण में सामान्यरूपसे ब्राह्मण में विद्या, आचरण सम्पत्तिरूप अर्थकी सम्भावना कही गयी थी । किन्तु कपटी पण्डितने अभिप्रायको नहीं समझकर असद्भूत अर्थकी कल्पनासे दोष उठाया है। अतः यह छल किया गया है । इस प्रकार नैयायिकोंके कहनेपर आचार्य महाराज कहते हैं कि तिस ही प्रकार शब्दो नित्यः अस्पर्शवत्वात् । शब्दः अनित्यः प्रमेयत्वात् । पर्वतो धूमवान् वन्हे, इत्यादिक स्थालोंपर सुख, परमाणु, अंगार आदिसे व्यभिचार उठाना भी छल हो जायगा । अतः शब्दमें नित्यपनको साधने के निमित्त दिये गये स्पर्शरहितपन गुणपन आदि हेतुओंका प्रयोग भी तिस ही प्रकार अतिसामान्य क्यों नहीं हो जाओ। सभी प्रकारोंसे कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् - छळ या व्यभिचार दोषकी अपेक्षा ब्राह्मणत्व और अस्पर्शवत्व दोनों एकसे हैं । वह छ है तो यह भी छक हो जायगा । और यहां व्यभिचार दोष उठाया गया माना जायगा, तो वह मी प्रतिवादीद्वारा व्यभिचार दोषका उठाना तुम्हें स्वीकार करना पडेगा । देखिये, आपके ब्राह्मणस्य हेतुके समान अस्पर्शवत्वमें भी अतिसामान्य घटित हो जाता है । वह अस्पर्शवत्र भी
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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