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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः १९७ शुद्ध प्रेरणा कर देना नियोग है यह द्वितीय पक्ष भी इस पूर्वोक्त और भविष्य में कहे जाने वाले वक्तव्य करके निरस्त कर दिया गया है। क्योंकि नियोगको प्राप्त करने योग्य पुरुष और नियोगके फल गाये गये स्वर्गसे रहित हो रही प्रेरणाको मानना केवळ निरर्थक बकवाद है । अतः ऐसी प्रेरणाको नियोग स्वरूपपना नहीं सिद्ध हो पाता है । तीसरे पक्ष अनुसार नियोगवादियोंका प्रेरणा से सहित हो रहा कार्य नियोग है, इस प्रकार कहना मी सम्भावना करने योग्य नहीं है। क्योंकि नियोज्य पुरुष ( नेगी ), नियोजक शब्द, आदिके विना उस नियोगके हो जानेका विरोध है । कार्य और प्रेरणा से ही नियोग नहीं सध जाता है । चतुर्थ पक्ष अनुसार कार्यसे सहित हो रही प्रेरणा नियोग है, यह विशेष्य विशेषणकी परावृत्ति कर मान लिया गया कथन भी इस उक्त कथन करके खण्डित कर दिया जाता है । नियोज्य और नियोजकके बिना कोई प्रेरणा नहीं बन सकती है । I कार्यस्यैवोपचारतः प्रवर्तकत्वं नियोग इत्यप्यसारं, नियोज्यादिनिरपेक्षस्य कार्यस्य प्रवर्तकत्वोपचारायोगात् कदाचित्कचित्परमार्थतस्तस्य तथानुपलंभात् । कार्यप्रेरणयोः संबंधी नियोग इति वचनमसंगतं ततो भिन्नस्य संबंधस्य संबंधिनिरपेक्षस्य नियोगत्वेनाघटनात् । संबंध्यात्मनः संबंधस्य नियोगत्वमित्यपि दुरन्वयं, प्रेर्यमाणपुरुषनिरपेक्षयोः संबंधात्मनोरपि कार्यप्रेरणयोः नियोगत्वानुपपत्तेः । भविष्य में किये जाने योग्य कार्यको ही उपचारसे प्रवर्तकपना नियोग है । यह पांचवां पक्ष भी निस्सार है । क्योंकि नियोज्य, नियोजक आदिकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले कार्यको उपचार से प्रवर्तकपना नहीं बन सकता है । मुख्यरूप से सिंह के असिद्ध होनेपर वीर पुरुषमें सिंहपनेका उपचार कर दिया जाता है । किन्तु यहां कभी कहीं वास्तविकरूपसे नियोज्य आदिसे रहित केवळ कार्यको 1 तिस प्रकार प्रवर्तकपना नहीं देखा गया है । नियोगवादियों का कार्य और प्रेरणा के सम्बन्धको नियोग कथन करना यह वचन भी पूर्वापर संगति से रहित है । क्योंकि सम्बन्धवाले कार्य और प्रेरणा स्वरूप सम्बन्धियोंसे निरपेक्ष हो रहे तथा उनसे भिन्न पडे हुये सम्बन्धको नियोगपने करके घटना नहीं होती है । अर्थात् सम्बन्धियोंसे सर्वथा भिन्न पडा हुआ सम्बन्ध तटस्थ पदार्थ के समान उनका नियोग नहीं हो सकता है । हां, यदि नियोगवादी कार्य और प्रेरणारूप सम्बन्धियोंसे अभिन्न तदात्मक हो रहे सम्बन्धको यदि नियोग मानेंगे इसपर तो हम विधिवादी कहते हैं कि उनका यह कहना भी पूर्वापर अन्य संगतिसे शून्य है । कठिनतासे भी नहीं समझा जा सकता है। क्योंकि प्रेरणा किये जा रहे, श्रोता पुरुषकी नहीं अपेक्षा रख रहे सम्बन्धी स्वरूप भी कार्य और प्रेरणा के सम्बन्धको नियोगपना नहीं बन पाता है । अर्थात् - कार्य और प्रेरणा से तदात्मक हो रहा भी सम्बन्ध जबतक सर्वाधिकारी पुरुषकी अपेक्षा नहीं करेगा, तबतक कथमपि नियोग नहीं 1
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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