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________________ २१६ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके १ हजार योजन गहरे अनवस्था कुंड, शलाका कुंड, प्रतिशलाका कुंड, महाशलाका कुंडोंको बनाया जाय। अनवस्था कुंडको सरसोंसे शिखा भरकर जम्बूद्वीपसे परे दूने दूने विस्तारवाळे द्वीप समुद्रोंमें एक एक सरसोंको डालते हुये क्रम अनुसार पूर्व पूर्व कुंडके भर जानेपर- अग्रिमकुंडमें एक एक सरसों डालते डालते एक लाख योजन लम्बे चौडे, गोल एक हजार गहरे महाशलाकाको भरदेनेवाले अन्तिम अनवस्था कुंडकी सरसोंमेंसे एक कम कर देनेपर उत्कृष्ट संख्यात नामकी संख्या बनती हैं । बात यह है कि शब्दोंकी अपेक्षा नयोंके भेद अधिकसे अधिक मध्यमसंख्यात हैं। यह संख्या कोटि, अरब, खरब, नील, पद्म, आदि संख्याओंसे कहीं बहुत अधिक है । कृत एवमतः सूत्राल्लक्ष्यत इत्याह । इस श्री उमास्वामी महाराजके छोटेसे सूत्रके इस प्रकार सामान्य संख्या, संक्षेपसे भेद, विशेष स्वरूपसे विकल्प, और अत्यन्त विस्तारसे नयोंके विकल्प इस प्रकारकी सूचना किस ढंगसे जान ली जाती है ! इस प्रकार शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं । भावार्य-माताके उदरसे जन्म लेते ही बालक जिनेन्द्रदेवको इन्द्र आदिक देव सुमेरुपर्वतपर लेजाकर एक हजार आठ कलशोंसे उस लघुशरीर जिनेन्द्रबालकका अभिषेक करते हैं। यहां भी ऐसी शंकायें होना सुख्म हैं। किन्तु वस्तुके अनन्त शक्तियोंका विचार करनेपर वे शंकायें कर्पूरके समान उड जाती हैं। एक तिल बराबर रसायन औषधि सम्पूर्ण बम्बे चौडे शरीरको नीरोग कर देती है। पहाडी विच्छूके एक रत्तीके दश सहस्रयां भाग तुले हुये विषसे मनुष्यका दो मन शरीर विषाक्त हो जाता है । एक जो या अंगुलके समान लम्बी, चौडी छोटी मछलीके ऊपर लाखों मन पानीकी धार पडे तो भी वह नहीं घबडाती है । प्रत्युत कभी कभी नाचती घूमती किलोछे करती हुई हर्ष पूर्वक सैकडों गज ऊंची जलधारापर उसको काटती हुई ऊपर चढ जाती है। बात यह है कि मात्र अंगुलके असंख्यातवें भागमें समा जानेवाले छोटेसे पुद्गल स्कन्धके बिगड जानेपर सैकडों कोसतक बीमारियां फैल जाती हैं । सैकडों कोस लम्बी भरी हुई वारुदकी नालीको उडादेने के लिये अग्निकी एक चिनगारी पर्याप्त है । इसी प्रकार महामना पुरुषोंके मुखसे निकले हुये उदात्त शब्द अपरिमित अर्थको प्रतिपादन कर देते हैं । इसी बातको श्री विद्यानन्द आचार्यके मुखसे सुनिये । नयो नयो नयाश्चेति वाक्यभेदेन योजितः। नैगमादय इत्येवं सर्वसंख्याभिसूचनात् ॥५॥ श्री उमास्वामी महाराजने इस सूत्रके विधेयदलमें नया इस प्रकार शब्द कहा है। वाक्यों या पदोंके भेद करके एक नय, दो नय और बहुतसे नय इस प्रकार एकशेषद्वारा योजना कर दी गयी है । इस ढंगसे नैगम आदि मात नयों के साथ " नयः" इस एक वचनका सामानाधिकरण्य
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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