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________________ तवा को कवार्तिके 1 प्रसंग देनेसे अथवा पक्ष और दृष्टान्त दोनोंके धर्म हेतु आदिके साध्यपनसे उठादी जाती है । उसका उदाहरण यों है कि जैसे घट है, तैसा शब्द है, तब तो जैसा यह शब्द है, तैसा घट भी अनित्य हो जाय । यह कह दिया जाय यदि शब्द साध्य है, तिस प्रकार घट भी साध्य हो जाओ । यदि घडा अनित्य साधने योग्य नहीं है, तो शब्द भी अनित्य साधने योग्य नहीं होवे । अथवा कोई अन्तर दिखलाओ। यह साध्यसम है, एक प्रकार आश्रयासिद्ध हेत्वाभास समझना चाहिये । इस ढंग से नैयायिकों के यहां उत्कर्षकरके अपकर्षकरके वर्ण्यकर के अवर्ण्यकर के विकल्पकरके और साध्यकरके सम हो रही पृथक् पृथक् छह जातियां हैं। उनका लक्षण दृष्टान्तसहित यह समझ लेना चाहिये | श्री विश्वनाथ पंचाननने स्वकीय वृत्तिमें उक्त प्रकार विवरण किया है । ४७४ यदाह, साध्यदृष्टांतयोर्धर्मविकल्पादुमयसाध्यत्वाच्चोत्कर्षापकर्षवर्ण्यवर्ण्यविकल्पसाध्यसमा इति । जो ही न्यायसूत्रकार गौतमने उत्कर्षसमा आदि छह जातियोंके विषयमें यों सूत्र कहा है कि साध्य और दृष्टान्तमें धर्मका विकल्प करनेसे अथवा उभयको साध्यपना करनेसे उत्कर्षसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा, साध्यसमा इस प्रकार छह जातियोंका लक्षण बन जाता है । तत्रोत्कर्षसमा तावलक्षणतो निदर्शनतथापि विधीयते । उन छह पहिले पढ़ी गयी उत्कर्षसमा जातिका लक्षणसे और दृष्टान्त कथन करनेसे भी अब विधान किया जाता है । दृष्टांतधर्मं साध्यार्थे समासंजयतः स्मृता । तत्रोत्कर्षसमा यद्वत्क्रियावज्जीवसाधने ॥ ३३८ ॥ क्रियाहेतुगुणासंगी यद्यात्मा लोष्ठवत्तदा । तद्वदेव भवेदेष स्पर्शवानन्यथा न सः ॥ ३३९ ॥ न्यायभाष्यकार उत्कर्षसमाका लक्षण दृष्टान्तसहित यों कहते हैं कि दृष्टान्तके धर्मको अधिक पने करके साध्यरूप अर्थमें भले प्रकार प्रसंग करा रहे प्रतिवाद के ऊपर उत्कर्षसमा जाति उठायी जाय, यह प्रक्रिया प्राचीन ऋषि आम्नायसे चली आ रही है । जिस प्रकार कि उस ही प्रसिद्ध अनुमानमें जीवको क्रियावान् साधनेपर यों प्रसंग उठाया जाता है कि क्रियाके हेतु हो रहे गुणका सम्बन्धी आत्मा यदि डे के समान क्रियावान है, तो उस ही डेळके समान यह आत्मा स्पर्शगुण का भी प्राप्त हो जाता है। अन्यथा यानी आत्मा डेळके समान यदि स्पर्शवान नहीं है, तो वह आत्मा के समान क्रियावान् भी नहीं हो सकेगा, यह उत्कर्षसमा जाति है ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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