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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः INRNIRaintamanyamniaimananthemunisandestinamummmmsantansamumanganananimassam चाहिये । किन्तु जब यह हेतु सन्दिग्धसाध्यवालेमें पर्त रहा है तो दृष्टान्त साध्यसद्भाव संशयग्रस्त होगया । तथा सन्दिग्धसाध्यवान् में धर्तरहा हेतु यदि दृष्टान्तमें नहीं है, तब तो गमक हेतुका अभाव हो जानेसे दृष्टान्त साधनविकल हो जायगा। यह दोष है। यों प्रतिवादीका अन्तरंग अभिप्राय है । अवर्ण्यसमामें तो जैसे घट आदिक ख्यापनीय नहीं हैं वैसे ही शब्द मी अवर्य रहो। कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार साध्य यानी शब्द आदि पक्षमें दृष्टान्तवृत्ति हेतुका सर्वथा सादृश्य आपादन किया जाता है । अर्थात् -साध्यकी सिद्धिवाले दृष्टान्तमें जो हेतु है, यदि वही हेतु पक्षमें नहीं बतेंगा तो ज्ञापक हेतुके नहीं ठहरनेसे स्वरूपासिद्ध दोष हो जायगा । अतः तिस प्रकारका (दूबहू ) हेतु पक्षमें स्वीकार करना चाहिये और तैसा होनेपर संदिग्ध साध्यवान् पक्ष यह पक्षका लक्षण घटित नहीं होता है। अतः षादीका हेतु आश्रयासिद्धि दोषसे दूषित हुआ समझा जायगा । वृत्तिकारका स्पष्ट कथन यह है कि निश्चितरूपसे सिद्ध हो रहे साध्यको धारनेवाले दृष्टान्तमें जो धर्म यानी हेतु है, उसके सद्भावसे शब्द आदि पक्षमें असंदिग्ध साम्यवानपनेका आपादन कर अवर्ण्यसमा है । दृष्टान्तमें जैसे (निखित साध्यवान् वृत्ति ) हेतु होगा वैसा हेतु ही पक्षमें ठहर कर साध्यका गमक हो सकेगा। यदि दृष्टान्तमें जो हेतु निश्चित साध्यवालेमें वर्त रहा है, वह हेतु पक्ष नहीं माना जायगा तो स्वरूपासिद्धि दोष लग बैठेगा और हेतुके मान लेनेपर संदिग्ध साध्यवान् पक्ष नहीं बननेसे आश्रयासिद्धि दोष लग जाता है। तथा पाचवी ( यहां ) सातवीं (पहिलीसे) विकल्प समा जातिमें तो मूललक्षण यों घटाना चाहिये कि पक्ष और दृष्टान्तमें जो धर्म उसका विकल्प यानी विरुद्ध कल्प व्यभिचारीपन आदिकसे प्रसंग देना है, यह विकल्पसमाके उत्थानका बीज है। चाहे जिस किसी भी धर्मका कही भी व्यभिचार दिखलामे करके धर्मपमकी अविशेषतासे प्रकरण प्राप्त हेतु का भी प्रकरणप्राप्त साध्य के साथ व्यभिचार दिखला देना विकल्पसमा है । जैसे कि शब्द अमित्य है, कतक होनेसे, इस प्रकार वादीके कह चुकनेपर यहां प्रतिवादी कहता है कि कृतकत्वका गुरुत्व के साथ व्यभिचार देखा जाता है। घट, पट, पुस्तक, आदिमें कृतकस्व है । साथमें भारीपन भी है। किन्तु बुद्धि, दुःख, द्वित्व, भ्रमण, मोक्ष, आदिमें कृतकपना होते हुये भी गुरुत्व (भारीपन) नहीं है और गुरुत्वका अनित्यके साथ व्यभिचार देखा जाता। यधपि नैयायिक वैशेषिक सिद्धान्त अनुसार गुरुत्वका मनित्यत्वके साथ व्यभिचार दिखलाना कठिन है।" गुरुणी द्वे रसवती” पृथ्वी और नलमें ही गुरुव माना गया है। भले ही पृथ्वी परमाणु और जीय परमाणुओंमें अनित्यत्वके नहीं रहते हुये मी गुरुत्व मान लिया जाय । वस्तुतः विचारनेपर परमाणुओंमें गुरुत्व नहीं सिद्ध हो सकेगा। अस्तुः । तथा अनित्यत्वका मूर्तस्वके साथ मन या पृथ्वी, जल आदिकी परमाणुओंमें व्यभिचार देखा जाता है। जब कि धर्मपनकी अपेक्षा कृतकत्व, अनित्यत्वमें कोई विशेषता नहीं है, तो कृतकत्व भी अनित्यत्व का व्यभिचार कर लेवें । इस प्रकार यह वादीके हेतुपर विकल्पसमामें अनेकान्तिक हेस्वाभास चक्र देकर प्रतिवादीद्वारा उठाया गया है । छडी या माठवी साम्यसमा आति तो साम्यधर्मका दृष्टान्तमें 60
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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