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________________ तत्वार्यश्लोकवार्तिके घ 1 तो रूपके साथ ठहरा हुआ है । अतः दृष्टान्तकी सामर्थ्य से शद्ब भी रूपवान् हो जायगा और तैसा हो जाने पर विवक्षित पदार्थसे विपरीत अर्थका साधन हो जानेसे यह हेतु विशेष विरुद्ध हो जायगा । यह कथन विरुद्ध हेत्वाभास रूप हुआ । इसी प्रकार श्रवण इन्द्रियसे जाने जा रहे शद्वके साधर्म्य हो रहे कृतकत्व धर्मसे घट भी कर्ण इन्द्रियग्राह्य हो जाओ। कोई विशेषता नहीं है । यों पक्ष ( शद्ब ) दृष्टान्त (ठ) विशेष धर्मोके बढा देनेसे उत्कर्षसमा जाति हो जाती है । तथा आपकर्षसमा जातिमें तो साध्य और दृष्टान्तके सहचरित धर्मका विकल्प यानी असत्व दिखाया जाता है । तिस कारणसे अपकर्षसमा जाति तो हेतु और साध्य मेंसे अन्यतरके अभावका प्रसंग देना स्वरूप है । जैसे कि शद्व अनित्य है । कृतक होनेसे इस प्रकार वादी द्वारा कह चुकनेपर प्रतिवादी कहता है किं अनित्यपनके साथ वर्त रहे कृतकत्व धर्मसे यदि शद्वको अनित्य साधा जाता है, तब तो घट कृतकत्व और अनित्यत्व के सहचारी रूप गुणकी शद्वमें व्यावृत्ति हो जानेसे शद्वमें कृतकस्व और अनित्यत्वकी भी व्यावृत्ति हो जावेगी । कृतकत्वको व्यावृत्ति हो जानेसे हेतु स्वरूपासिद्ध हो जायगा और शद्वमें अनित्यत्वकी व्यावृत्ति हो जानेसे वाघ हेत्वाभास भी सम्भवता है । यह पक्ष में धर्मका विकल्प किया गया है। इसी प्रकार अपकर्षसमाके लिये दृष्टान्तमें धर्मका विकल्प यों करना चाहिये कि शद्व कृतकत्व के साथ श्रवणइन्द्रियग्राह्म धर्म रहता है । और संयोग, विभाग आदिमें अनित्यत्व और कृतकत्वके साथ गुणत्व रहता है । किन्तु घटमें श्रावणस्य और गुणव दोनों नहीं हैं । तिस कारण घटमें अनित्यत्व और कृतकत्व भी व्यावृत्त हो जायेंगे । इस प्रकार दृष्टान्तमें साध्य धर्मकी विकळता और साधन धर्मकी विकळतारूप देशनाभास यह जाति हुई । यदि कोई यों कहे कि वैधर्म्यसमाका इस अपकर्षमासमें ही अन्तर्भाव हो जायगा । इसपर नैयायिक यों उत्तर देते हैं कि दोषवान् पदार्थके एक होनेपर भी उसमें दोष अनेक सम्भव जाते हैं । उपाधियुक्तका सांकर्य होनेपर भी उपाधियोंका सांकर्य नहीं है । वर्ण्यसमा उक्त दृष्टान्त अनुसार यों कहा जाता है कि यदि शब्द अनित्य है, इस प्रकार वर्णन करने योग्य साधा जा रहा है, तब तो घट आदि दृष्टान्त भी साध्य यामी पक्ष हो जाओ। इस प्रकार साध्यधर्मका संदेह हो जानेसे साध्य और दृष्टान्तमें धर्म के विकल्पसे यह पांच जातियोंका मूललक्षण यहां भी घटित हो जाता है । साध्यके वर्ण्यत्वको यानी पक्ष के संदिग्धसाध्यकत्वको दृष्टान्तमें आपादन करना वर्ण्यसमा है । इसका अर्थ यह है कि पक्षमें वृत्ति जो हेतु होगा वही तो साध्य को समझानेवाला ज्ञापक हेतु हो सकेगा । किन्तु पक्ष तो यहां सन्दिग्ध साध्यवान् है । और तिसी प्रकार सन्दिग्धसाध्यवाके में वर्तरहा हेतु तुमको दृष्टान्तमें भी स्वीकार करना चाहिये । और तिस प्रकार होनेपर दृष्टान्तको भी सन्दिग्ध साध्यवानुपना हो जानेके कारण हेतुकी सपक्ष और विपक्ष में वृत्तिताका निश्चय नहीं होने से यह असाधारण हेत्वाभास है । यह नियम है कि दृष्टान्तमें हेतु निश्चित साध्य के साथ ही रहना १७२
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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