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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः क्रियावान्के साधर्म्य क्रिया तुगुणाश्रयत्वसे भात्मा डेलके समान क्रियावान् नहीं होवे, इस पक्षपात प्रस्तके नियमको बनानेके लिये वादीके पास कोई विशेष हेतु नहीं है। यह सूत्र और माग्यके अनुसार पहिले साधर्म्यसमा और अब वैधर्म्यसमा जातिका उदाहरणसहित लक्षण कह दिया गया है। नैयायिक इन दोनों जातियोंमें अनेक दूषणोंके उत्पन्न हो जानेसे इनको असत् उत्तर मानते हैं। क्योंकि किसीके केवल सदृशधर्मापन या विसदृश धर्मापनसे ही किसी साध्यकी मले प्रकार सिदि नहीं हो जाती है। अतः प्रतिवादीका उत्तर प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता है । अथोत्कर्षापकर्षवर्ध्यावर्ण्यविकल्पसाध्यसमा साभासा विधीयते । इन दो जातियोंके निरूपण अनन्तर अब गौतमसूत्र अनुसार दोष आभास सहित हो रही उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यममा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा साध्यसमा, इन छह जातियोंका कथन किया जाता है । अर्थात्-पहिले इन जातियोंका कथन कर पश्चात् साथ ही ( लगे हाथ) इन प्रतिवादीके द्वारा दिये गये दूषणोंका दूषणामासपना भी सिद्ध करदिया जायगा। नैयायिकोंको हमने कहनेका पूरा अवसर दे दिया है। वे अपने मनो अनुकूल जातियोंका असमीचीन उत्तरपना बखान रहे हैं । हम जैन भी शिष्योंकी बुद्धिको विशद करनेके लिये वैसाका वैसा ही यहां लोकवार्तिक प्रन्थमें कथन कर देते हैं । सो सुनलीजियेगा। साध्यदृष्टान्तयोधर्मविकल्पाद्वयसाध्यता। सद्भावाच मता जातिरुत्कर्षेणापकर्षतः ॥ ३३६ ॥ वावयेविकल्पैश्च साध्येन च समाः पृथक् । तस्याः प्रतीयतामेतल्लक्षणं सनिदर्शनम् ॥ ३३७ ॥ साध्य और दृष्टान्तके विकल्पसे अर्थात्-पक्ष और दृष्टान्तमेंसे किसी भी एकमें धर्मकी विधिप्रतासे तथा उभयके साध्यपनका सद्भाव हो जानेसे उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा, साध्यसमा ये छह जातियां पृथक् पृथक् मान ली गयी हैं । अर्थात्-पक्ष और दृष्टान्तके धर्मविकल्पसे तो पहिली पांच जातियां उठायी जाती हैं। और पक्ष, दृष्टान्त, दोनोंके हेतु आदिक धर्मोको साध्यपना करनेसे छट्ठी सघयसमाजाति उत्थित होती है । प्रकृतमें साध्य और साधनेमें से किसी भी एक विकल्पसे यानी सद्भावसे जो अविधमान हो रहे धर्मका पक्षमें आरोप करना है, वह उत्कर्षसमा है। जैसे कि शब्द ( पक्ष) अनित्य है ( साध्य ) । कृतक होनेसे (हेतु) घटके समान ( अन्वय दृष्टान्त ) इस प्रकार वादी द्वारा स्थापना होनेपर प्रतिवादी कहता है कि घटमें अनित्यपनके साथ जो कृतकत्व रहता है, वह
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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